रविवार, 29 अप्रैल 2018

जीवन की डगर

10:33:00 am
जीवन की डगर
वो पहला क्रन्दन, फिर चुप हो मुसकाना ।
धीरे से पलकें उठाना, 
मानो कलियों की पंखुड़ियों का खुलना ।।
फिर वो बाल-हठ, चपलता, 
शैशव से आगे बढ़ती उमर ।
फिर पढाई-लिखाई, कुछ करने की चाहत भरा वो जिगर ।।
अल्हड़ जवानी में पहला कदम,
किशोर मन की दुविधा भरी वो डगर ।
इस सफर में मिली जब वो इक हमसफ़र,
फिर प्रेम के पथ की वो अल्हड़ डगर ।।
फिर गृहस्थी की आई नई सी डगर,
हर डगर के मुहाने पर बस इक डगर ।
न उधर, न इधर, न कहीं फिर किधर,
न अगर, न मगर बस डगर ही डगर ।।
बस चलना है, चलते जाना है, रुकना नहीं ये कहती डगर ।
'शुभेश' ठहराव का तो कोई नहीं है जिकर ।।
हाँ इक शांति, अनंत शांति का है अवसर ।
मगर फिर बची ही कहाँ है डगर ।।

रचना

10:10:00 am
रचना 
रचना क्या है, कुछ शब्दों का ताना-बाना ।
कुछ अपनी, कुछ सबकी, बात वही जाना-पहचाना ।।
कुछ शब्दों से छंद बने और गीत बने ।
कुछ छंदों ने काव्य रूप मनमीत गढ़े ।।
कुछ रचना ने सुलझाई अनसुलझी गुत्थी ।
भेद खोल जीवन के ढंग दिखाई है सच्ची ।।
कुछ महाकाव्य बन पूजित हैं, ईश्वर के समकक्ष हुए ।
जीवन को परिभाषित करती, कुछ से जीवन को लक्ष्य मिले ।।