गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

संत कबीर के विचार -आज कितने प्रासंगिक

6:56:00 pm
संत कबीर के विचार -आज कितने प्रासंगिक

भारत की पावन वसुंधरा अनेकों महान साधु - संतों की जननी रही है, जिन्‍होंने अपने पावन जीवन-दर्शन  से भारत  ही  नहीं सम्‍पूर्ण विश्‍व को लाभान्वित किया है। ऐसे ही संतों की श्रेणी में अग्रणी नाम परम तेजस्‍वी संत कबीर का है।  इस धरा-धाम पर संत कबीर  का  पदार्पण  ऐसे समय  में  हुआ जब एक ओर तो भारतीय जनमानस हिन्‍दू धर्म में गहरी पैठ बना चुके आडम्‍बरों व कुप्रथाओं से लड़ रहा था, वहीं दूसरी ओर आततायी लोदी शासकों के अन्‍याय और जबरन धर्म-परिवर्तन का शिकार हो रहा था। 
विभिन्‍न विद्वानों-इतिहासकारों के अनुसार संत कबीर का जन्‍मकाल 1398 ई. के आस-पास था। वे सैय्यद और लोदी शासकों के समकालीन थे। संत कबीर के जन्‍म के सम्‍बंध में कबीर-पंथियों में एक दोहा प्रचलित है-

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्‍द्रवार एक ठाठ ठए ।
ज्‍येष्‍ठ सुदी बरसाईत को, पूरनमासी प्रकट भए ।।

अर्थात् संत कबीर का प्राकट्य काल विक्रमी संवत 1455 संवत ज्‍येष्‍ठ मास के पुर्णिमा के दिन हुआ था। कबीर ने सदैव दया और प्रेम जैसी मानवतावादी भावों को अपने विचारों में अधिक स्‍थान दिया है-

दया राखि धरम को पाले, जग से रहे उदासी ।
अपना सा जी सबका जाने, ताहि मिले अविनाशी ।।

जहां दया, तहां धर्म है, जहां लोभ तहां पाप ।
जहां क्रोध तहां काल है, जहां क्षमा वहां आप ।।

जीवन की सत्‍यता का बोध कराने के लिए उन्‍होंने प्रभावशाली अभिव्‍यक्ति दी है जो उनके साखियों में स्‍पष्‍टत: परिलक्षित होता है –
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझ-सा बुरा न कोय ।।

चुन-चुन तिनका महल बनाया, लोग कहें घर मेरा ।
ना घर मेरा, ना घर तेरा, चिडि़या रैन बसेरा ।।

हाड़ जड़े ज्‍यों लाकड़ी, केस जड़े जस घास ।
पानी केरा बुलबुला, अस मानुष की जात ।।

पानी ही ते हिम भया, हिम होय गया बिलाय ।
जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाय ।।

कबीर दिखावटी प्रेम के स्‍थान पर आंतरिक प्रेम और लौकिक प्रेम के स्‍थान पर परमात्‍मा के प्रति निश्‍छल प्रेम को प्रमुखता देते हैं। उनके अनुसार प्रेम सर्वत्र है -

प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रूचै, शीश देइ लै जाय ।।

जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं ।
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दोउ न समाय ।।

बाहर क्‍या दिखलाइए, अंतर जपिए राम ।
कहां काज संसार से, तुझे धनी से काम ।।

कबीर अपने साखियों में मानव जीवन के यथार्थ से भी परिचय कराते हैं और जीवनरूपी नाव को खेने का ढंग भी सिखलाते हैं-

कबिरा गर्व न कीजिए, कबहुं न हंसिए कोई ।
अजहुं नाव समुद्र में, ना जाने का होई।।

जो तोकूं कांटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, वा कू है तिरशूल ।।

निन्‍दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय ।
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करे सुभाय ।।

वृक्ष कबहुं न फल भखै, नदी न संचै नीर ।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर ।।

संत कबीर तन की शुद्धता के स्‍थान पर मन की शुद्धता को अधिक महत्‍व देते हैं-

नहाए धोय क्‍या हुआ, ज्‍यों मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ।।

संत कबीर ने धर्म के नाम पर हो रहे आडम्‍बरों का कड़ा विरोध किया और विभिन्‍न कुप्रथाओं पर आमजनों की भाषा में ही आघात किया –

पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़ ।
ता से तो चक्‍की भली, पीस खाय संसार ।।

हिन्‍दू-तुरूक की एक राह है, सतगुरू इहै बताई ।
कहहि कबीर सुनहु हो सन्‍तों, राम न कहेउ खुदाई ।।

कबीर दिखावटी स्‍वांग को त्‍याग कर निर्मल हृदय से भगवत भजन की सलाह देते हैं –

कबीर जपनी काठ की, क्‍या दिखलावे मोहि ।
हृदय नाम न जापिहें, यह जपनी क्‍या होहि ।।

पिया का मारग सुगम है, तेरा भजन अवेड़ा ।
नाच न जानै बापुड़ी, कहता आंगन टेढ़ा ।।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ।।

वर्तमान समय भी कुछ अलग नहीं है। निरंतर धर्म के नाम पर हो रही हिंसा और अंधविश्‍वास की भेंट चढ रही मानव जिन्‍दगियों को देख लगता है कि हमने संत कबीर के विचारों को पूरी तरह विस्‍मृत कर दिया है। संत कबीर केवल धार्मिक सुधारक ही नहीं थे, उनके विचारों ने समाज को एक नई दिशा दी। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक है। उन्‍होंने मानव को जीवमात्र से प्रेम करना सिखलाया। बाह्य आडम्‍बरों को सिरे से नकारते हुए सच्‍चे मन से भगवत भजन की सलाह दी। 
 ओ३म्  ।।    शांति:    ।।    शांति:    ।।    शांति:    ।।

जलेबी की तरह सीधी बातें

6:49:00 pm
जलेबी की तरह सीधी बातें

आज का युग प्रगतिशीलता का युग है।  हर ओर विकास हो रहा है।  विकास के पैमाने का भी विकास हो रहा है।  पहले  भूखमरी  के  आंकड़ों  से  विकास  का आकलन किया जाता था।  अमुक वर्ष  में  भूख से मरने वालों की संख्‍या इतनी थी जो पिछले वर्ष घटकर इतनी हो गयी है। अर्थात हम विकास कर रहे हैं। परंतु, आज का दौर तो डिजिटल क्रांति का है। अतएव, भुखमरी के डाटा का स्‍थान डिजिटल डाटा ने ले लिया है। जीबी और टीबी पैमाने ने विकास को बूलेट ट्रेन की रफ्तार दी है। घबरायें नहीं मैं वो खांसने वाले टीबी की नहीं गीगाबाइट-टेराबाईट की बात कर रहा हूं। हमारे कम्‍प्‍यूटर के शिक्षक पढाते थे कि सब कुछ 0 और 1 का कमाल है। वो बायनरी सिस्‍टम (द्विआधारी सिस्‍टम) की बात कर रहे थे। 
  इस डिजिटल दौर में बस 0 और 1 ही है। कोई दूसरा स्‍थान पर नहीं रहना चाहता है। सभी 1 नम्‍बर पर रहेंगे नहीं तो 0 नम्‍बर, मतलब कुछ नहीं। रेस लगी है भागने की और सभी भाग रहे हैं ‘एक’ नम्‍बर के पीछे। डर है कि वो कहीं 0 न रह जाएं। अब इस भागम भाग में किसे पड़ी है पूछने की, कि विकास के इस बूलेट रफ्तार में क्‍या पीछे रह गया है। बूलेट ट्रेनों को अपने देश में लाने में प्रयासरत सरकार को लोकल व एक्‍सप्रेस ट्रेनों में बोरियों की तरह लदकर जा रहे यात्रियों की कितनी चिंता है। सभी ट्रेन लेट चलें, हम भेड़-बकरियों की तरह यात्रा करें, हमें क्‍या। गेटमैन के अभाव में मानवरहित रेल फाटकों पर दुर्घटनाएं होती हो तो हों, हमें क्‍या। हम तो बूलेट ट्रेन की बात करेंगे और खुशफहमी में जी लेंगे कि अब हम भी जापान से टक्‍कर लेंगे।
अट्टालिकाओं की गगनचुम्‍बी श्रृंखला और नीचे दम तोड़ता किसान। अभी भी भूख से मर रहें हैं लोग और किसान अपने लागत मुल्‍य तक के अभाव में अपनी ही ऊपजाई फसलों को वापस अपनी ही खेतों में दफन करने को मजबूर है। परंतु हमें क्‍या, हम तो फ्री डाटा को ही विकास से तौलेंगे। सब सोशल नेटवर्किंग में और अपना नेटवर्क बढा रहे हैं। समय कहॉं है, किसके पास है। सब तो व्‍यस्‍त है। 


अफीम से भी गहरा नशा दिया जा चुका है, सभी मस्‍त हैं। तभी तो जब सरकार घोषणा करती है कि देखो विकास हुआ है और कुछेक करोड़ की ऋण सहायता और कुछेक लाख को आवास सहायता का अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाती है। तो सब ताली बजाते हैं। पर ये तो बताएं कि आबादी तो एक अरब के पार हो गयी है, वहां ये कुछ करोड़ के क्‍या मायने हैं। पर कौन पूछे,  सभी मस्‍त हैं।  मुझे तो जलेबी बहुत भाती है क्‍योंकि वो इतनी सीधी होती है कि एक सिरा को पकड़ो और दूसरे सिरा से विकास को माप लो। मैंने भी ठान ली है कि विकास की पूरी खबर लेकर रहूंगा।  कुछ दोस्‍तों ने भीतर की खबर निकाल कर दी है कि विकास के आने की तिथि 30 फरवरी है और ये पक्‍की खबर है। अब देखिये कब आती है वो तिथि। पर किसे इंतजार है, सब तो राम-रहीम, मंदिर-मस्जिद, 3जी-4जी में व्‍यस्‍त हैं और मैं !  मैं तो जलेबी पाकर ही मस्‍त हूं। 
**जय श्री हरि**

पानी

6:47:00 pm
 पानी
प्‍यास से गला सूख रहा था, परंतु कहीं पानी नजर नहीं आ रहा था। मैंने घर के सारे बोतल,  डब्‍बे  यहां तक  कि किचन के सारे बरतन को कई बार उलट-पलट कर देख लिया लेकिन पानी की एक बूंद भी नहीं मिली। मैं प्‍यास से बेचैन होकर छुट्टन के दुकान की ओर भागा। पहुंचते-पहुंचते मैं हांफने लगा था। मैंने पानी की एक बोतल मांगी। उसने लगभग झल्‍लाते हुए बोला- अरे भाई नहीं है पानी। सुबह से एक ही बात बोल-बोलकर थक गया हूं। भाई पानी की बोतल की सप्‍लाई नहीं हो रही है। पूरे दस दिन से मैंने पानी की एक बोतल भी नहीं बेची। हम जैसों के नसीब में ऐसी अनमोल चीजें कहां। मैं बदहवास सा चीख पड़ा। क्‍या मतलब, पानी नहीं है। प्‍यास के मारे मैं मरा जा रहा हूं और जब मैं पानी खरीदने आया हूं तो तुम भी नहीं दे रहे हो। क्‍या हो गया है, अब मैं कहां से पानी लाऊं। छुट्टन ने समझाते हुए कहा- भाया पीने के पानी की बहुत मार मची है। दिन में दो बजे नलकूप विभाग की गाड़ी आती है और सभी घरों के लिए प्रति व्‍यक्ति एक लीटर के हिसाब से पानी देती है। अब तो उसी का इंतजार करना पड़ेगा, कोई और चारा नहीं है। मैंने उसकी ओर आशा भरी निगाहों से देखा, शायद वो अपने लिए रखे पानी में से थोड़ा मुझे भी पिला दे। पर उसने दो-टूक लहजे में कह दिया- और चाहे जो कुछ मांग लो परंतु पानी नहीं। 2 बजे से पहले पानी नहीं मिलेगा और मैंने एक गिलास पानी अपने बेटे के लिए बचा कर रखा है जो प्‍यासा स्‍कूल से लौटेगा तब उसे दूंगा। 
मैं हताश-निराश वापस घर की ओर लौट पड़ा। अब दो बजे तक इंतजार करने के सिवाय कोई चारा नहीं था। परंतु अभी तो केवल 10 ही बजे थे। चार घण्‍टे तक मैं प्‍यास से तड़पता रहूंगा। हाय ये क्‍या हो गया है। बेसिन में लगा नल मुझे देख मुंह चिढा रहा था, मानो मन ही मन मुझे कोस रहा हो – और पानी करो बर्बाद। ब्रश करते समय और सेविंग करते समय नल खुला छोड़कर जाने कितने लीटर पानी बर्बाद कर दिये अब भुगतो। बाथरूम में लगा झरना तो मानो मेरी बेबसी पर अट्टहास लगा रहा था- घंटों तक झरने के नीचे नहाने का आनंद लेते समय तनिक भी भान नहीं रहा कि कितना पानी व्‍यर्थ जा रहा। वहीं गमले में लगे फूलों की सूखी डंठल और आंगन में लगभग ठूंठ हो चुका आम और कटहल के पेड़ मेरी दशा पर मानो तरस खाते हुए बोल रहे थे – इतने व्‍यर्थ पानी बर्बाद करने के स्‍थान पर यदि हमें सींचा होता और छोटे-छोटे पौधों की सेवा की होती तो आज ये नौबत न आती। 
पूरे कॉलोनी में कहीं हरे-भरे पेड़ नहीं थे। कहीं-कहीं सूखे तने दिखलाई पड़ रहे थे। तभी बाहर कोलाहल सुनाई पड़ा। लोगों की भीड़ लगी थी, पानी वाली गाड़ी आ गई थी। लोग लाईन लगा रहे थे। मैं भी भागा-भागा गया और विनती की, कि पहले मुझे पानी दें मैं बहुत प्‍यासा हूं। पानी बांटने वाले ने बोला- ठीक है अपना वाटर कार्ड निकालो। अब ये क्‍या बला है? कौन-सा वाटर कार्ड। हे भगवान अभी तक आपने वाटर कार्ड नहीं बनवाया, फिर तो मैं कुछ भी नहीं कर सकता। सरकार ने पानी के ब्‍लैक मार्केटिंग रोकने के लिए सबको वाटर कार्ड जारी किया है, बिना उसके पानी नहीं मिलेगा। पानी देने वाला कर्मचारी यह कहकर दूसरों को पानी देने में व्‍यस्‍त हो गया। मैं प्‍यास के मारे पागल हुआ जा रहा था। मेरे आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। मैं हाथ जोड़कर भगवान से विनती करने लगा- हे भगवान, अब तेरा ही आसरा है। अब तुम ही मेरे प्राणों की रक्षा कर सकते हो। तभी मेरे जीभ पर पानी की कुछ बूंदे पड़ी। मानों भगवान ने मेरी प्रार्थना से द्रवित होकर बादल को बारिश करने भेज दिया हो। 


फिर आंखों पर पानी की कुछ बूंदें पड़ी। साथ में पत्‍नी का स्‍वर सुनाई पड़ा। कब तक सोते रहोगे ऑफिस नहीं जाना क्‍या। मैं आंख मलते हुए उठ बैठा। तो मैं सपना देख रहा था। कितना भयानक सपना था। लेकिन इस सपने को सच होते देर नहीं लगेगी यदि समय रहते हम पानी और वनों का महत्‍व नहीं समझेंगे। इसलिए पेड़ लगायें और पर्यावरण को बचायें जिससे आपकी अगली पीढ़ी को इस सपने से रूबरू न होना पड़े। 

हम आम जनता

6:43:00 pm
हम आम जनता

हम आम जनता – हम आम जनता
जो है सबसे  सस्‍ता – जो है सबसे सस्‍ता
चुनावी वादों में बिन मोल बिकते हैं
नई सरकार आने तक खुशफहमी में रहते हैं

हाय री आम जनता, सरकारें तो बदली
पर तेरी किस्‍मत, वो कहां बदली

अब आम भी कहां, अमरूद भी कहां
तेरी किस्‍मत में तो पपीता भी नहीं
तू आम जनता है – आम जनता
हां, तू मुर्दा तो नहीं, पर जिन्‍दा भी नहीं

ना मुझ पर भड़कने से क्‍या होगा
अरे जिन्‍दा हो तो जिन्‍दा दिखो
तुम्‍हें तलवार चलाने कौन कहता
बस कलम ही काफी है, कुछ तो लिखो

तुम लिखो कि ये तुम्‍हारा अधिकार है
जनता की जनता के लिए चुनी हुई सरकार है

लिखो कि हमारे ‘कर’ का क्‍या किया
विकास देश का हुआ कि अपना किया
जो चुनाव से पहले तो बेकार थे
कभी पैदल तो कभी साइकल सवार थे

तुम लिखो कि वो कैसे कार-ओ-कार हैं
बंगले खजानों से कैसे माल-ओ-माल हैं
लिखो विकास गजब का हुआ जनाब है
जो पी रहे वो खून है हमारा, ना शराब है

‘शुभेश’ तुम लिखो,
तुम्‍हारी लेखनी रंग लाएगी कभी
क्‍या पता, मुर्दों में भी जान आएगी कभी

हे प्रभु - निवेदन

6:39:00 pm
हे प्रभु - निवेदन

हर भेष में तू, सब देश में तू
कण-कण में तू ही, हर क्षण में तू ही
तुम राग में हो, अनुराग में हो
तुम प्रीत, प्रेम और त्‍याग में हो

तुम मातु-पिता, तुम बन्‍धु-सखा
तुम सन्‍यासी, तुम जोग-जती
प्रभु राम तू ही, और कृष्‍ण तू ही
गौतम-महावीर-नानक तूम ही

तुम सूर तुलसी और मीरा हो
जन-जन का मान कबीरा हो
कर्म तू ही, सब धर्म तू ही
जीवन के सारे मर्म तू ही

घट बाहर भी, घट भीतर भी
घट में बसो, सब घट में रमो
सब जीव में तुम समदरशी हो
सुख-दु:ख में सदा मन हरषी हो

सर्वत्र तू ही, सर्वज्ञ तू ही
ज्ञान तू ही, मर्मज्ञ तू ही
तुम दूर नही, तुम पास में हो
तुम आस में हो विश्‍वास में हो

हम जाएं कहां कुछ भान नहीं
कहें कष्‍ट किसे कुछ ज्ञान नहीं
सर्वत्र तू ही, फिर कष्‍ट है क्‍यूं
सर्वज्ञ तू ही, फिर मौन है क्‍यूं

प्रभु मैं अज्ञानी हूं शायद
कुछ मान-गुमान हमें शायद
तुम पुत्र जानि हमें माफ करो
हमको अब भव से पार करो

अब और नहीं कुछ तृष्‍णा शेष
विनती कर जोडि़ करै ‘शुभेश’

हिन्दी दिवस

6:33:00 pm
हिन्दी दिवस

आज फिर हिन्दुस्तान में हिन्दी दिवस मनाएँगे।
साहब लोग अंग्रेजी सूट में आएंगे, हिंदी की गाथा गाएंगे।।
अधीनस्थों को अनुरोध नहीं रिक्वेस्ट करेंगे।
सब पत्रों के रिप्लाई हिंदी में देना, बस पखवाड़े भर कष्ट करो।
फिर करना अंग्रेजी वाली, मेरे ऊपर ट्रस्ट करो ।।
हमको भी उत्तर देना है, कुछ खानापूर्ति करना है।
साज-सज्जा में कमी नही हो, इस मद भी खर्चा करना है।।
हिंदी है भारत की बिंदी, सारे जग को दिखलाएंगे।
कमी नहीं कुछ करना तुम हम हिंदी दिवस मनाएंगे।।
हिंदुस्तान की किस्मत कैसी, हिंदी दिवस मनाई जाती।
पर घर-घर मे गुण कथित सभ्यों की भाषा अंग्रेजी की गाई जाती।।
वो अंग्रेजी जिसने वर्षों हम पर राज किया ।
झूठी चकाचौंध में पथभ्रष्ट समाज किया ।।
हमारे विकास, एकता, अखंडता की सबसे बड़ी बाधक अंग्रेजी की जो गुण गाते हैं।
शुभेश वही देखो आज कितने तन्मयता से हिन्दी दिवस मनाते हैं।।

प्रभु कब तक यूँ ही तरपाओगे

6:27:00 pm
प्रभु कब तक यूँ ही तरपाओगे

प्रभु जी, प्रभु जी ओ प्रभु जी
प्रभु कब तक यूँ ही तरपाओगे
नयन मूँद कर, हमसे रूठकर
कब तक हमें तुम सताओगे
प्रभु जी, ओ प्रभु जी......
मेहनत की नही है मानो कदर
भटकते रहे हम, हो दर-ब-दर
जहां से चले थे फिर पहुंचे वहीं
कब तक बता दो है केशव हमें,
पेंडुलम की तरह यूँ घुमाओगे
प्रभु जी, हे प्रभु जी..............
अकेला शहर में, मैं तन्हा डगर में
कर्मभूमि में भी अकेला खड़ा हूँ
तूने जो मुंह फेर ली हमसे माधव
घर हो या बाहर नियति से लड़ा हूँ
कोई कर्म के वश, कोई धर्म के वश
हमारी नियति भी कहाँ अपने है वश
प्रभु जी, ओ प्रभु जी...........
मेरा मर्म जाने, जगत में न कोई
हाँ मैं मानता हूँ, ये सब जानता हूँ
दिखाते हो तस्वीर तुम जिसको जैसे
समझता उसे सच है बिल्कुल ही वैसे
पर दोष किसका जो छवि देखता है?
या दोष तेरा जो सर्वज्ञ हो, मुँह फेरता है?
हम तन्हा तेरी राहों में खड़े हैं
हे केशव, कृपा बिन विकल हो रहे हैं
प्रभु जी, हाँ प्रभु जी.....................
कर्म कुछ विकट हमने शायद किये हों
तभी तो हे राघव नयन मूंदते हो
क्षमाप्रार्थी हूँ हे सर्वज्ञ केशव
उचित ही करोगे जानता हूँ मैं माधव
वो घड़ी आएगी कब बता दो हे राघव
जब तुम्हारी सुदृष्टि पड़ेगी हम सब पर
वो दृष्टि तुम्हारी जो कल्याणकारी
सकल दुःख-विपदा पर पड़ती जो भारी
प्रभु जी, ओ प्रभु जी....................
शुभेश करें विनती हे प्रभु जी, प्रभु जी
हम सबको तू अपना, हाँ अपना ही समझो
विपत्ति की कितनी कठिन ही घड़ी हो
दया-दृष्टि हम पर सदा रख ही परखो
हे प्रभु जी, हाँ प्रभु जी, ओ प्रभु जी