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गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

जलेबी की तरह सीधी बातें

6:49:00 pm
जलेबी की तरह सीधी बातें

आज का युग प्रगतिशीलता का युग है।  हर ओर विकास हो रहा है।  विकास के पैमाने का भी विकास हो रहा है।  पहले  भूखमरी  के  आंकड़ों  से  विकास  का आकलन किया जाता था।  अमुक वर्ष  में  भूख से मरने वालों की संख्‍या इतनी थी जो पिछले वर्ष घटकर इतनी हो गयी है। अर्थात हम विकास कर रहे हैं। परंतु, आज का दौर तो डिजिटल क्रांति का है। अतएव, भुखमरी के डाटा का स्‍थान डिजिटल डाटा ने ले लिया है। जीबी और टीबी पैमाने ने विकास को बूलेट ट्रेन की रफ्तार दी है। घबरायें नहीं मैं वो खांसने वाले टीबी की नहीं गीगाबाइट-टेराबाईट की बात कर रहा हूं। हमारे कम्‍प्‍यूटर के शिक्षक पढाते थे कि सब कुछ 0 और 1 का कमाल है। वो बायनरी सिस्‍टम (द्विआधारी सिस्‍टम) की बात कर रहे थे। 
  इस डिजिटल दौर में बस 0 और 1 ही है। कोई दूसरा स्‍थान पर नहीं रहना चाहता है। सभी 1 नम्‍बर पर रहेंगे नहीं तो 0 नम्‍बर, मतलब कुछ नहीं। रेस लगी है भागने की और सभी भाग रहे हैं ‘एक’ नम्‍बर के पीछे। डर है कि वो कहीं 0 न रह जाएं। अब इस भागम भाग में किसे पड़ी है पूछने की, कि विकास के इस बूलेट रफ्तार में क्‍या पीछे रह गया है। बूलेट ट्रेनों को अपने देश में लाने में प्रयासरत सरकार को लोकल व एक्‍सप्रेस ट्रेनों में बोरियों की तरह लदकर जा रहे यात्रियों की कितनी चिंता है। सभी ट्रेन लेट चलें, हम भेड़-बकरियों की तरह यात्रा करें, हमें क्‍या। गेटमैन के अभाव में मानवरहित रेल फाटकों पर दुर्घटनाएं होती हो तो हों, हमें क्‍या। हम तो बूलेट ट्रेन की बात करेंगे और खुशफहमी में जी लेंगे कि अब हम भी जापान से टक्‍कर लेंगे।
अट्टालिकाओं की गगनचुम्‍बी श्रृंखला और नीचे दम तोड़ता किसान। अभी भी भूख से मर रहें हैं लोग और किसान अपने लागत मुल्‍य तक के अभाव में अपनी ही ऊपजाई फसलों को वापस अपनी ही खेतों में दफन करने को मजबूर है। परंतु हमें क्‍या, हम तो फ्री डाटा को ही विकास से तौलेंगे। सब सोशल नेटवर्किंग में और अपना नेटवर्क बढा रहे हैं। समय कहॉं है, किसके पास है। सब तो व्‍यस्‍त है। 


अफीम से भी गहरा नशा दिया जा चुका है, सभी मस्‍त हैं। तभी तो जब सरकार घोषणा करती है कि देखो विकास हुआ है और कुछेक करोड़ की ऋण सहायता और कुछेक लाख को आवास सहायता का अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाती है। तो सब ताली बजाते हैं। पर ये तो बताएं कि आबादी तो एक अरब के पार हो गयी है, वहां ये कुछ करोड़ के क्‍या मायने हैं। पर कौन पूछे,  सभी मस्‍त हैं।  मुझे तो जलेबी बहुत भाती है क्‍योंकि वो इतनी सीधी होती है कि एक सिरा को पकड़ो और दूसरे सिरा से विकास को माप लो। मैंने भी ठान ली है कि विकास की पूरी खबर लेकर रहूंगा।  कुछ दोस्‍तों ने भीतर की खबर निकाल कर दी है कि विकास के आने की तिथि 30 फरवरी है और ये पक्‍की खबर है। अब देखिये कब आती है वो तिथि। पर किसे इंतजार है, सब तो राम-रहीम, मंदिर-मस्जिद, 3जी-4जी में व्‍यस्‍त हैं और मैं !  मैं तो जलेबी पाकर ही मस्‍त हूं। 
**जय श्री हरि**

हम आम जनता

6:43:00 pm
हम आम जनता

हम आम जनता – हम आम जनता
जो है सबसे  सस्‍ता – जो है सबसे सस्‍ता
चुनावी वादों में बिन मोल बिकते हैं
नई सरकार आने तक खुशफहमी में रहते हैं

हाय री आम जनता, सरकारें तो बदली
पर तेरी किस्‍मत, वो कहां बदली

अब आम भी कहां, अमरूद भी कहां
तेरी किस्‍मत में तो पपीता भी नहीं
तू आम जनता है – आम जनता
हां, तू मुर्दा तो नहीं, पर जिन्‍दा भी नहीं

ना मुझ पर भड़कने से क्‍या होगा
अरे जिन्‍दा हो तो जिन्‍दा दिखो
तुम्‍हें तलवार चलाने कौन कहता
बस कलम ही काफी है, कुछ तो लिखो

तुम लिखो कि ये तुम्‍हारा अधिकार है
जनता की जनता के लिए चुनी हुई सरकार है

लिखो कि हमारे ‘कर’ का क्‍या किया
विकास देश का हुआ कि अपना किया
जो चुनाव से पहले तो बेकार थे
कभी पैदल तो कभी साइकल सवार थे

तुम लिखो कि वो कैसे कार-ओ-कार हैं
बंगले खजानों से कैसे माल-ओ-माल हैं
लिखो विकास गजब का हुआ जनाब है
जो पी रहे वो खून है हमारा, ना शराब है

‘शुभेश’ तुम लिखो,
तुम्‍हारी लेखनी रंग लाएगी कभी
क्‍या पता, मुर्दों में भी जान आएगी कभी

हिन्दी दिवस

6:33:00 pm
हिन्दी दिवस

आज फिर हिन्दुस्तान में हिन्दी दिवस मनाएँगे।
साहब लोग अंग्रेजी सूट में आएंगे, हिंदी की गाथा गाएंगे।।
अधीनस्थों को अनुरोध नहीं रिक्वेस्ट करेंगे।
सब पत्रों के रिप्लाई हिंदी में देना, बस पखवाड़े भर कष्ट करो।
फिर करना अंग्रेजी वाली, मेरे ऊपर ट्रस्ट करो ।।
हमको भी उत्तर देना है, कुछ खानापूर्ति करना है।
साज-सज्जा में कमी नही हो, इस मद भी खर्चा करना है।।
हिंदी है भारत की बिंदी, सारे जग को दिखलाएंगे।
कमी नहीं कुछ करना तुम हम हिंदी दिवस मनाएंगे।।
हिंदुस्तान की किस्मत कैसी, हिंदी दिवस मनाई जाती।
पर घर-घर मे गुण कथित सभ्यों की भाषा अंग्रेजी की गाई जाती।।
वो अंग्रेजी जिसने वर्षों हम पर राज किया ।
झूठी चकाचौंध में पथभ्रष्ट समाज किया ।।
हमारे विकास, एकता, अखंडता की सबसे बड़ी बाधक अंग्रेजी की जो गुण गाते हैं।
शुभेश वही देखो आज कितने तन्मयता से हिन्दी दिवस मनाते हैं।।

प्रभु कब तक यूँ ही तरपाओगे

6:27:00 pm
प्रभु कब तक यूँ ही तरपाओगे

प्रभु जी, प्रभु जी ओ प्रभु जी
प्रभु कब तक यूँ ही तरपाओगे
नयन मूँद कर, हमसे रूठकर
कब तक हमें तुम सताओगे
प्रभु जी, ओ प्रभु जी......
मेहनत की नही है मानो कदर
भटकते रहे हम, हो दर-ब-दर
जहां से चले थे फिर पहुंचे वहीं
कब तक बता दो है केशव हमें,
पेंडुलम की तरह यूँ घुमाओगे
प्रभु जी, हे प्रभु जी..............
अकेला शहर में, मैं तन्हा डगर में
कर्मभूमि में भी अकेला खड़ा हूँ
तूने जो मुंह फेर ली हमसे माधव
घर हो या बाहर नियति से लड़ा हूँ
कोई कर्म के वश, कोई धर्म के वश
हमारी नियति भी कहाँ अपने है वश
प्रभु जी, ओ प्रभु जी...........
मेरा मर्म जाने, जगत में न कोई
हाँ मैं मानता हूँ, ये सब जानता हूँ
दिखाते हो तस्वीर तुम जिसको जैसे
समझता उसे सच है बिल्कुल ही वैसे
पर दोष किसका जो छवि देखता है?
या दोष तेरा जो सर्वज्ञ हो, मुँह फेरता है?
हम तन्हा तेरी राहों में खड़े हैं
हे केशव, कृपा बिन विकल हो रहे हैं
प्रभु जी, हाँ प्रभु जी.....................
कर्म कुछ विकट हमने शायद किये हों
तभी तो हे राघव नयन मूंदते हो
क्षमाप्रार्थी हूँ हे सर्वज्ञ केशव
उचित ही करोगे जानता हूँ मैं माधव
वो घड़ी आएगी कब बता दो हे राघव
जब तुम्हारी सुदृष्टि पड़ेगी हम सब पर
वो दृष्टि तुम्हारी जो कल्याणकारी
सकल दुःख-विपदा पर पड़ती जो भारी
प्रभु जी, ओ प्रभु जी....................
शुभेश करें विनती हे प्रभु जी, प्रभु जी
हम सबको तू अपना, हाँ अपना ही समझो
विपत्ति की कितनी कठिन ही घड़ी हो
दया-दृष्टि हम पर सदा रख ही परखो
हे प्रभु जी, हाँ प्रभु जी, ओ प्रभु जी

रविवार, 5 अगस्त 2018

Happy Friendship Day

5:00:00 pm
Happy Friendship Day
happy-friendship-day

मित्रता दिवस की ढेरों बधाई
हॉं आप सबों को Happy Friendship Day भाई
पर आज के दौर में सच्चा मित्र कौन है
क्या वो जो मित्र के दु:खों पर भी मौन है
या वो जो मित्र बना स्वार्थ हेतु
ना जी मित्र तो होते परमार्थ हेतु
लो फिर भगवान को ही मित्र बना लो
और समस्त दु:खों से ​मुक्ति पा लो
हॉं ये सच है, भगवान सबके मित्र बन जाते हैं
परंतु क्या सभी भक्त सच्चे मित्र बन पाते हैं
वो सुदामा सी मित्रता जिसने कृष्ण की दरिद्रता अपने नाम कर ली
वो कृष्ण की मित्रता जिसने अपना सबकुछ सुदामा के नाम कर दी

भगवान ने पग—पग पर हमे मित्र दिया है
क्या आपने उसे महसूस किया है
जन्म लिया तो मित्र मॉं बन आई
क्या निज रक्त से और कोई सींचे है भाई
फिर पिता ​बनि सम्मुख आए
प्रथम गुरू जो प्रेम, स्नेह और अनुशासन का पाठ पढ़ाए
फिर लंगोट मण्डली और भाई—बहन की वो टोली
जिन संग हम सबने खेली आॅंख—मिचौली
अपनी ही धुन में वो मस्त मलंग सा
मस्ती से भरा, नहीं फिकर किसी का
फिर boyfriend-girlfriend वाली दोस्ती
दुनिया लगे दीवानों जैसी
फिर पति—पत्नी का मित्र बन आना
सुख—दु:ख जो सम करि जाना
फिर संतान घर खुशियां लाई
जिसने बचपन की याद दिलाई
तो 'शुभेश' पग—पग पर है मित्रता
मत करो किसी से शत्रुता

शनिवार, 14 जुलाई 2018

यौ भगवान - O My Lord - हे भगवान

3:46:00 pm
यौ भगवान

shubhesh
यौ भगवान, यौ भगवान
किया बनेलौं हमरा,ई नइ जानि
यौ भगवान..............

हम अज्ञानी, अवगुणक निशानी
अपन बुराई हम कतेक बखानी'
हमरा सन दु​र्बुद्धि नै कोनो सन्तान ।
यौ भगवान.................

सर्व दु:खदायी, कष्ट सहायी
अमंगलकारी आ प्रेम भिखारी
हमरा सन साजन नै सगरो जहान ।।
यौ भगवान.................

हम लोभी अति तामसी ढोंगी
जिद्दी, क्रोधी, दिखावटी जोगी
हमरा सन भ्राता—मित्र नै कोनो बेकाम ।।
यौ भगवान.................

हमरा सं' केकरो जे उपकार होइतै
हमरो कारण जे केओ खुश भ' जैतै
हमरो पाबि सब धन्य कहाबै
तखन ने 'शुभेश' बुझता जे हमहूं इन्सान ।।
यौ भगवान.................

मंगलवार, 1 मई 2018

विकास

10:47:00 pm
विकास
देश तरक्की कर रहा है
हम विकसित हो रहे हैं
हमारे दादे-परदादे के ज़माने में, 
पक्की सड़कें भी नहीं थी
अब मेट्रो और बुलेट ट्रेन की बात होती है
पहले अधिकारी के सामने आने पर भी लोग भय खाते थे
कहीं डाँट पड़ जाए तो पतलून गीली हो जाती थी
अब तो लिखित कार्रवाई का असर भी नहीं होता
उनकी बधिर होने की क्षमता का भी विकास हुआ है, जूं तक नही रेंगती
पहले औरतें पर्दा करती थी, मर्द भी धाक करते थे
वो नारी सम्मान, मातृ-पितृ पूजन, वो संस्कार की बातें
वो पलक उठाये बिन बातें करना, पैर के अंगूठे से मिट्टी कुरेदना
वो अश्कों का कभी बाहर आना, कभी अंदर ही रह जाना
वो सब इक गुजरा दौर था
ये तो नया दौर है
तब प्रेम भी सर्वत्र था
मातृ-प्रेम, पितृ-प्रेम, भातृ-प्रेम, मित्र-प्रेम
प्रेयसी-प्रेम, पत्नी-प्रेम, पति-प्रेम
प्रेम भी एक संस्कार था
आज उसका भी विकास हो गया है
स्वार्थ से अटूट गठबंधन हो गया है
पहले नारी के अनेक रूपों में भी
माँ-बहन-बेटी नजर आते थे
परंतु आज दृष्टिकोण का भी विकास हो गया है
आज नारी के हर रूप में प्रेयसी और भोग्या ही नजर आती है
भई इंसानियत का विकास तो चरम सीमा तक पहुँच गया है
इससे अधिक विकास तो कोई माई का लाल कर भी नही सकता
हमने भेद-भाव की हर सीमा को हटा दिया है
जवान और बच्ची का भेद-भाव तक मिटा दिया है
हमने शोषित और शोषक का फर्क भी मिटा दिया है
विकास की परिभाषा में नया अध्याय जोड़ दिया है
शोषितों के साथ-साथ, शोषकों का भी पोषण करते हैं
बोलो 'शुभेश' क्या अब भी कहोगे की विकास नही हुआ और हम शोषण करते हैं।।


रविवार, 29 अप्रैल 2018

जीवन की डगर

10:33:00 am
जीवन की डगर
वो पहला क्रन्दन, फिर चुप हो मुसकाना ।
धीरे से पलकें उठाना, 
मानो कलियों की पंखुड़ियों का खुलना ।।
फिर वो बाल-हठ, चपलता, 
शैशव से आगे बढ़ती उमर ।
फिर पढाई-लिखाई, कुछ करने की चाहत भरा वो जिगर ।।
अल्हड़ जवानी में पहला कदम,
किशोर मन की दुविधा भरी वो डगर ।
इस सफर में मिली जब वो इक हमसफ़र,
फिर प्रेम के पथ की वो अल्हड़ डगर ।।
फिर गृहस्थी की आई नई सी डगर,
हर डगर के मुहाने पर बस इक डगर ।
न उधर, न इधर, न कहीं फिर किधर,
न अगर, न मगर बस डगर ही डगर ।।
बस चलना है, चलते जाना है, रुकना नहीं ये कहती डगर ।
'शुभेश' ठहराव का तो कोई नहीं है जिकर ।।
हाँ इक शांति, अनंत शांति का है अवसर ।
मगर फिर बची ही कहाँ है डगर ।।

सोमवार, 18 सितंबर 2017

समन्‍दर और पत्‍थ्‍ार

12:36:00 am
समन्‍दर और पत्‍थ्‍ार
समन्‍दर तीर पे आकर,
मिली पाषाण से जाकर
कि तुम पाषाण तुम जड़वत,
कि तुम नादान मैं अवगत ।।

जो गुजरे पास से होकर,
वही इक मारता ठोकर

कहीं आना नहीं जाना
मेरे ही रेत के भीतर,
है तुमको दफन हो जाना

मुझे देखो मैं बल खाती
ऊफनती हूं मचलती हूं,
लहरों पे गीत मैं गाती
गगन से झूमकर मिलती,
मगन मैं नाचती-फिरती
मेरे संग तू भी चल आकर,
उसे बोली तरस खाकर ।।

सुन कर के समन्‍दर की,
मदभरी बातें और ताने
पाषाण यूं बोला,
तरस मत खा तू मुझपर
और न दे कोई मुझे ताने
जगत में मैं ही, रहा शाश्‍वत
चिरंतन काल से अब तक ।।

मैं ही चक्‍की हूं जो,
पीसकर तुम्‍हारा पेट हूं भरता
खुद तो क्षीण होता हूं,
मुंह से ऊफ भी न करता ।।

अगर तुम पूजते मुझको
मैं शालिग्राम होता हूं
अगर तुम चाहते मुझको
मकबरे-ताज होता हूं ।।

अगर तुम जौहरी हो, मुझको तराशो
फिर हीरा हूं, किस्‍मत धनी पत्‍थर
अगर तुम ठोकरें मारो
फिर पत्‍थर हूं, बस पत्‍थर ।।

यहां पर नारियां अबला बनी
प्रताडि़त होती है
और बेटियां तो जन्‍म से
पहले ही मरती हैं ।।

दुर्गा, सरस्‍वती, लक्ष्‍मी का
गुणगान होता है
यहां पाषाण मुर्तियों का ही
सम्‍मान होता है...।।

(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)


सरकारी बनाम निजी प्रतिष्‍ठान

12:32:00 am
सरकारी बनाम निजी प्रतिष्‍ठान
‘सहज’, ‘सदय’ दोऊ मित्र परस्‍पर
विद्या के धनी, गुणी, प्रवीण धुरंधर
अल्‍पकाल स‍ब विद्या पाई
सरकारी सेवक बनने हेतु किस्‍मत आजमाई

‘सहज’ नाम अनुरूप सहजता से
सरकारी सेवक बन जाते हैं
परंतु ‘सदय’ अनेकों प्रयास के बावजूद
किस्‍मत को कोसते रह जाते हैं

दो वर्ष के पश्‍चात आखिरकार
एक प्रतिष्ठित निजी संस्‍थान ने
इनकी काबिलियत को पहचाना
सेवा का सुअवसर देकर इन्‍हें
और स्‍वयं को धन्‍य माना

‘सहज’ कार्य करें पूर्ण विनय से
प्रतिभा की नहीं कमी ‘सदय’ में

काज करें दोनों ही ऐसे
कर्म ही धर्म हो उनका जैसे

‘सदय’ ने निजी संस्‍थान में बेहतर प्रदर्शन कर
तरक्‍की पर तरक्‍की पाई
बोनस, इन्‍क्रीमेंट आदि को पाते हुए
कर्मचारी से अधिकारी वर्ग में पदोन्‍नति पाई

वहीं ‘सहज’ सरकारी सिस्‍टम के
चक्रव्‍यूह में उलझ कर रह गये
यहां अपनी क्षमता को प्रदर्शित करना
बेमानी है, नादानी है भूल गये

यहां तो वरिष्‍ठों से सुना
कथन सटीक बैठता है
‘तुम मत सोचो कि
ऊंट किस करवट बैठता है

तुम तो हाथी की तरह
मस्‍त विश्राम करो
औरों को करने दो काम
तुम बस आराम करो

यदि लोगे अधिक टेंशन
तो श्रीमतीजी पाएंगी पेंशन’

भाई सरकारी सिस्‍टम का
हाल तो बिल्‍कुल निराला है
जो चाटुकार है, रसूखदार है
बस उसी का बोलबाला है

जो मेहनती है, वो
सबसे परेशान व दु:खी है
‘शुभेश’ जो कामचोर हैं, वो ही
सम्‍मानित और सुखी हैं।

(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)

देश का विकास

12:23:00 am
देश का विकास

माननीय जी देश का हो रहा विकास है ।

घोटाला-भ्रष्‍टाचार-दंगा मुक्‍त भारत
आपने लिखी विकास की नई ईबारत
वैदेशिक सम्‍बंधों में बढ़ी मिठास है..........।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है....।।

अमरीका, इजरायल, जर्मनी और जापान
सबसे बनाए मधुर सम्‍बंध और विकास को किया गतिमान
परंतु आंतरिक सम्‍बंधों में अब भी वही खटास है....।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है...........।।

नोटबंदी के चक्‍कर में पूरा देश पस्‍त हो गया
अच्‍छे दिन आएंगे यह सोच सब कष्‍ट सह गया
भ्रष्‍टाचारी सलाखों के भीतर होंगे और काला धन बाहर आवेगा
जाने कब पूरी होगी यह आस है.....................।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है विकास है...।।

रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं
गरीबी तो नहीं, हां गरीब मिट रहे हैं
भारत के भविष्‍य कर रहे रोजगार की तलाश हैं....।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है..........।।

हमारे सच्‍चे पालक, प्रतिपालक, भारतीय किसान
कोई क्‍या जानें मंहगाई के इस दौर में खेती नहीं आसान
खेती के लिए भी कर्ज में डूबे हुए हैं
इनका विकास तो दूर की कौड़ी है,
अपने ही खेत में बंधुआ मजदूर बने हुए हैं
एक तो बाढ़ – सुखाड़ की त्रास है
ऊपर से सरकारी नीतियों ने भी किया निराश है.....।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है............।।

माननीय जी से विनम्र निवेदन, 
भाषण-सम्‍भाषण से ऊपर हो रोजगार सृजन ।

हर हाथ को काम और हर परिवार को आवास हो
जन-जन की भागीदारी के बिना अधूरा हर विकास है
माननीय जी सुनेंगे सबकी आवाज, यही इक आस है....।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है................।

(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)

रविवार, 19 फ़रवरी 2017

मानवीय संवेदनहीनता की पराकाष्ठा

1:13:00 am
मानवीय संवेदनहीनता की पराकाष्ठा

अखबार के प्रथम पृष्ठ पर छपे खबर को पढ़कर स्तब्ध रह गया। आज लोगों की मानवीय संवेदनाएं इस स्तर तक खत्म हो चुकी है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कोलकाता के महानगरीय परिवेश और भाग—दौड़ भरी जिन्दगी के बीच एक 72 वर्षीय वृद्धा भीड़—भाड़ वाले पार्क में, जो कि उसके घर के सामने थी, में आत्मदाह कर लेती है और वहां मौजूद सारे लोग तमाशबीन बने देखते रह जाते हैं। किसी ने भी उसे बचाने का प्रयास नहीं किया। यह बहुत ही भयावह है। 
     बंगभूमि की राजधानी कोलकाता हमेशा से बुद्धिजीवियों का केन्द्र रही है। यहां से अनेक ऐसे महान समाज सुधारक उभरकर आए हैं जिन्होंने समाज को एक नई दिशा दी है। उसी कोलकाता में कभी ये दिन देखना पड़ेगा, यह कल्पना से परे था।
     आज हमारी संवेदनाएं फेसबुक और ट्वीटर तक सिमट कर रह गयी है। लोगों की सोच को मोबाईल और इन्टरनेट क्रांति ने कुंठित कर दिया है। आस—पास होने वाले घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने, उसे रोकने के लिए लोगों के पास वक्त नहीं है। डिजिटल क्रांति ने लोगों के बीच होने वाले सीधे सम्वाद/सम्पर्क को ह्वाट्सअप, फेसबुक और ट्वीटर तक सीमित कर दिया है। इसके दूरगामी प्रभाव अत्यंत भयावह होने वाले हैं। क्या आप ऐसे समाज की परिकल्पना कर सकते हैं, जिसमें समाज के किसी सदस्य को दूसरे से कोई सरोकार न हो, कदापि नहीं। आज हमें खासकर युवा वर्ग को आगे बढ़कर समाज को इस भयावह परिस्थिति से बचाना होगा। हम प्रकृति के बनाये सबसे बुद्धिमान व सुंदर रचना हैं। सामाजिक व्यवस्था का आधार ही उसके सदस्यों के बीच आपसी सामंजस्य और तालमेल है। यदि यह ही न रहा तो सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा ही समाप्त हो जाएगी।
     एक सजग व अच्छे सामाजिक सदस्य होने के नाते सबों का कर्तव्य है कि उपरोक्त घटना की पुनरावृति कदापि न हो। यथासम्भव यदि किसी एक भी व्यक्ति ने उस वृद्धा को बचाने का प्रयास किया होता तो वह शायद आज हमारे बीच होती। वह कोई भी हो सकती है, केवल इसलिए मूकदर्शक बने रहना कि वह हमारी परिचित नहीं, यह तो घोर अमानवीयता का परिचायक है।
     कृपया सोच बदलें और बेहतर समाज के निर्माण में सहयोग दें।
                                           ——— शुभेश

बुधवार, 17 अगस्त 2016

सुन रे मानव अब तो संभलो

3:30:00 pm
अब तो संभलो

सुन रे मानव अब तो संभलो, मत प्रकृति से खिलवाड़ करो।
तुम हो कर्ता की उत्तम रचना, मत वनों का संहार करो।।

जिस कर्ता ने तुझे संवारा,
लोभ के वश हो उसे उजारा।
                         जीवनदायिनी पेड़ उखारे,
                         छिन्न—भिन्न कर दिये नजारे।।

जो तेरा है जीवन—रक्षक, जिस वायु से होते पोषित।
बड़े—बड़े उद्योग लगाकर, उस वायु को किया प्रदुषित।।

पर्वत को भी नहीं है छोड़ा,
यहां वहां हर जगह से तोड़ा।
                            वन उजाड़े और नदी को बांधा,
                            प्रकृति की हर सीमा को लांघा।।

जिसने ये संसार बनाया,
जीवन—ज्योति धरा पर लाया।
                           कृत्य भला ये कैसे सहता,
                           मूक—बधिर सा कब तक रहता।।

अति दोहन से जल स्रोत सुखाये,
बूंद—बूंद को जी तरसाये।
                          कहीं बाढ़—रूपी आयी विपदा,
                          और कहीं है बादल फटता।।

कहीं बाढ़ है, कहीं सूखाड़,
चहूं ओर मचा है हाहाकार।
                          चेत—चेत अब भी 'शुभेश',
                          बस पेड़ लगा और पेड़ लगा, वरन् नहीं बचेगा कुछ भी शेष।।

''प्रकृति के अंधाधूंध दोहन की यह परिणति है।
पेड़ बचाओ, हरियाली लाओ, तभी हमारी होगी सद्गति है।''
                                                             ............शुभेश
(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)

मंगलवार, 9 अगस्त 2016

सातवां पे कमीशन : अच्छे दिन आएंगे ?

12:42:00 pm
सातवां पे कमीशन : अच्छे दिन आएंगे ?

पे कमीशन आया, सातवां पे कमीशन आया।
सभी कर्मचारियों को अंगूठा दिखाता, पे कमीशन आया।
भैया पे कमीशन आया, सातवां पे कमीशन आया।।

पे कमीशन ने भैया बस लक्ष्य यही इक ठाना है।
गुजर—बसर करते जैसे, वो बंधुआ मजदूर बनाना है।।
जब दिल्ली वालों ने लाख रूपये कर लिए वेतन।
तब चुप्पी साधे बैठा रहा पे कमीशन ।।

आटे—चावल का जाने कौन—सा मोल—भाव किया।
मात्र 18000 रूपये का न्यूनतम वेतन, भारत सरकार को रिपोर्ट दिया।।
15750 से बढ़ाकर 18000 का वेतन, कुल 2250 रूपये बढ़ाने वाली।
सभी सरकारी कर्मचारियों की खिल्ली खूब उड़ाने वाली।।
ये सरकार तो और निराली निकली।
खुद को भामाशाह बताने वाली निकली।।

मीडिया में खूब बढ़ा—चढ़ा कर पेश किया।
वेतन आयोग को ऐतिहासिक घोषित किया।।
वाकई वेतन आयोग तो ऐतिहासिक है।
द्वितीय वेतन आयोग से भी न्यूनतम वृद्धि, ऐतिहासिक तो है।।

हमारे माननीय सांसद कहते हैं, 
50000 में उन्हें अतिथि को चाय तक पिलानी मुश्किल है।
भारत की गौरवशाली परंपरा का,
दायित्व निभानी मुश्किल है।।

​फिर हमें वही सांसद 18000 में पूरे परिवार चलाने कहते हैं।
सहर्ष कैबिनेट प्रस्ताव पास करती, विरोध के स्वर नहीं उठते हैं।।
खुद एक सत्र भी कार्य किया और पूर्ण पेंशन तक प्राप्त किया।
लेकिन हम सरकारी सेवक, 60 वर्ष की उम्र तक कार्य करें।
फिर भी पेंशन लाभ से मरहूम रहें।।

इन सब बातों से वेतन आयोग को कोई सरोकार नहीं।
उन्हें सरकार से मतलब है, सरकारी सेवक से बेमतलब का प्यार नहीं।।

पहले दिल्ली वाले विधायक, लाख रूपये कर गए खुद का वेतन।
अब मुम्बई वालों ने कर लिए 2 लाख रूपये अपना वेतन।।
काश हमें भी ऐसे अधिकार मिले होते।
कम—से—कम रोटी दाल के पूरे पैसे लिए होते।।

अब थोड़ी—थोड़ी बात समझ में आती है।
महलों में रहने वाले को रोटी—दाल का भाव कहां पता चल पाती है।।
अब तो मोदी जी का दिखाया सब्जबाग भी लूट गया।
हां अच्छे दिन आएंगे ये सपना "शुभेश" का टूट गया।।

रविवार, 8 मई 2016

सुख-दु:ख

10:44:00 am
ज्यों दु:ख है, तो ही सुख, सुख है
सुख के लिए दु:ख का होना बहुत जरूरी है

बिना धूप के छाँव का आस्तित्व ही क्या
अंधियारे के बिना उजाले का महत्व ही क्या
गोरे हैं तब ही जब काले हैं
कहीं उदासी है फिर तब चित्त मतवाले हैं

जब जग में सब सुन्दर ही होते
कोई सुन्दर नहीं कहीं पर होते फिर
क्या होता जब दिवस—दिवस ही रहता केवल
नहीं अंधियारी रैना की क्या कोई जरूरत?

है कुरूपता से परिभाषा सुन्दर की
भेद यहीं से मिलता है नारी—नर की
ज्यों अपंगता है जग में तन सुन्दर है
कहीं खुरदुरे श्यामल चेहरे, कहीं पर छवि मनोहर है

कहीं लालच है, कामुकता है, फिर कहीं ईमानदारी है, वैराग्य है
कहीं निर्धनता है, व्याधि है, तो कहीं अमीरी है, आरोग्य है

यदि है क्रोधी कोई मोही, तब ही शांत चित्त निर्मोही
अन्याय नहीं फिर न्याय ही कैसा, जैसे पुण्य पाप बिनु वैसा

अरे भगवान के आस्तित्व के लिए भी, शैतान का होना बहुत जरूरी है
इसलिए ज्यों दु:ख है, तो ही सुख, सुख है, सुख के लिए दु:ख का होना बहुत जरूरी है

जो आज दु:खी है, कल सुखी भी होगा
तम का सीना फाड़ सूरज निकलेगा
तुम यत्न किन्तु बस इतना करना
नित कर्म किए जा और ईश चरण में ध्यान तुम धरना

फिर 'शुभेश' सुख ही सुख का, रहेगा तेरे घर डेरा
नहीं मिलेगी निशि अंधियारी, नहीं व्यापेगा तुझको कष्ट घनेरा
                                                                      .....शुभेश 

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

कभी सुबह तो होगी

11:04:00 pm
कभी सुबह तो होगी
सूरज की लालिमा बिखर चुकी है,
रात का अंधियारा छंट चुका है ।
उगते हुए उस बड़े से सूरज को देख
वो मासूम बचपन याद आ रहा है,
जो कहीं खो गया है, गुम हो गया है ।।

आप कहते हैं मैं अभी सात का हूं,
तो कहां छुपा है, यहीं है, यही तो है तेरा बचपन ।
हां यहीं है मेरा बचपन, खयालों में ही सही,
यहीं है, यहीं है मेरा बचपन ।।

खयालों में ही सही, हमउम्रों को देख मैं भी
धूलों में लोटता हूं, गांव की गलियों में दौड़ता हूं ।
कंचे खेलता हूं, धूम मचाता हूं, खयालों में ही सही ।
मालिक के डांटने पर, पीटने पर मां बालों में
प्यार से हाथ फेरती तो है, खयालों में ही सही ।
हां बचपन तो है, खयालों में ही सही ।।

कल एक प्लेट ही तो टूटी थी,
या फिर मेरी किस्मत ही फूटी थी ।
उसने गालियों की जो गुबार निकाली थी,
सुनकर शायद शरम भी शरमाई थी ।
पर मैं, मैं नहीं शरमाया
मैं तो वहीं बुत बना खड़ा था ।
शायद खुद को ढूंढ रहा था ।।

अब तो मेरे आंसू भी सूख गये हैं,
ये तो रोज की बात है, कह वो भी रूठ गये हैं ।
कभी गाली, कभी मारपीट, यही अब मेरी कहानी है,
भर—पेट खाने की लालसा में, बीती जा रही जिन्दगानी है ।।

ऊषा की लालिमा तो रोज आती है,
सारे जग के अंधकार मिटाती है ।
मेरा अंतर्मन मुझे देता है रोज दिलासा,
कि कभी तो कोई आएगा ।
जो मसीहा बनकर मेरे,
सिसकते हुए बचपन को फिर से हंसाएगा ।।

सपनों की वो जमीं कभी सच तो होगी ।
हां 'शुभेश' आज न सही मेरे लिए भी, कभी सुबह तो होगी ।।
                                                       ~~~शुभेश
***Please Strictly Avoid Child Labour***

सोमवार, 13 जुलाई 2015

मैं भारतवासी हूं

3:28:00 pm
मैं भारतवासी हूं..........
मैं भारतवासी हूं, फक्र करूं या शर्म करूं ।
ये तो वो भारत—भुमि नहीं, जहां राम,कृष्ण ने राज्य किया ।
पापियों का संहार किया और जनजीवन को आबाद किया ।।
चन्द्रगुप्त और महाराणा प्रताप की कथा लगे सपनों जैसी ।
सब लगे हैं स्वार्थ—सिद्धि में, परोपकार और ईमानदारी कैसी ।।
सांसदों की बात न पूछें, बस इनकी करतूतें देंखे ।
हर मामले पर डाल अड़ंगा, शुरू कर दें मार—पीट और दंगा ।।
सांसदों की करनी सुनकर, हर कोई ये शरम से कहता ।
क्या ये संसद है, यहीं कानून है बनता ...........?
आज यहां नंदीग्राम की घटनाओं का बोलबाला है ।
औद्योगिकरण और विकास के नाम पर होता बड़ा घोटाला है ।।
सरकार भ्रष्ट, व्यभिचार पुष्ट,
जनता है त्रस्त, कहे किससे कष्ट ।।
पाठकों आप करें स्पष्ट,
मैं फिर से वही प्रश्न करूं,...................
मैं भारतवासी हूं, फक्र करूं या शर्म करूं ।
                                        ~~~ शुभेश
(वर्ष 2007 में तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर ​रचित)
(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)