तंद्रा—भंग
Admin
12:30:00 am
तंद्रा—भंग
आज मन उदास थापरिस्थितियों से निराश था
ना कोई साथी न कोई सहारा था
जिन्दगी ने मानो कर लिया किनारा था
नौकड़ी की तलाश में
आज फिर निकल पड़ा
जो बची-खुची रेजगाड़ी थी
उसे ही पर्स में रख चल पड़ा
बस की खिड़की वाली सीट
मैंने पकड़ ली
मेरे विचारों के साथ-साथ
बस ने भी रफ्तार धर ली
अगले स्टॉप पर
एक षोडषी ने बस में प्रवेश किया
मेरे बगल की सीट पर
झट कब्जा कर लिया
कब तक मैं यूं ही भटकता फिरुंगा
क्या मैं भी कभी
ऐसी किसी षोडषी से मिलूंगा
नयन मूंद कर मैं,
स्वप्नलोक में खोने लगा
तभी उस षोडषी का हाथ
मेरे सीने पर चलने लगा
लगता है मेरे जख्मों पर
वो मरहम लगा रही है
मेरा दर्द समझ कर मुझे
अपना बना रही है
अचानक बस झटके से रूकी,
मेरी तंद्रा टूटी
अब न तो मेरा पर्स दिख रहा था,
न ही वो षोडषी दिखी
मैं जिसे स्वप्न-सुन्दरी समझ रहा था,
वो कमबख्त पॉकिटमार निकली।।
(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)