रविवार, 24 नवंबर 2019

सुख—दु:ख दोऊ सम करि जानो

सुख—दु:ख दोऊ सम करि जानो


sukh-dukh

     'सुख' इसकी परिभाषा भिन्न—भिन्न हो सकती है। भूखे के लिए भोजन प्राप्ति, दरिद्र के लिए धन प्राप्ति, नि:संतान के लिए संतान प्राप्ति, धूप में खड़े व्यक्ति के लिए छांव की प्राप्ति वहीं ठंढ से ठिठुर रहे व्यक्ति के लिए धूप की प्राप्ति सुख हो सकती है।
    अर्थात विभिन्न अवस्थाओं में सुख की परिभाषा अलग—अलग है। तो क्या उपरोक्त वर्णित सुख वास्तविक सुख हैं अर्थात स्थायी हैं। भूखे को यदि भोजन की प्राप्ति हो जाए तो भूख के शांत होने तक ही वह भोजन उसके लिए सुखकारी है। यही स्थिति अन्य के साथ भी है। वास्तविक सुख तो शांति की प्राप्ति है। शांति से परमानंद की प्राप्ति होती है और वही सच्चा सुख हो सकता है।
     तो शांति कैसे सम्भव है, इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है। शांति की प्राप्ति में 'संतोष' अत्यंत सहायक होता है। मैं बचपन से ही सदैव प्रार्थना किया करता था—       
     हे परम पूज्य गुरूदेव जू,
                         कीजै कृपा रहे शांत मन ।
     नहिं चाहिए मुझे और कुछ,
                         प्रभो दीजिए मुझे 'संतोष' धन ।।

    'संतुष्टि के भाव' मन को शांत करते हैं। इसमें भगवत सुमिरन बहुत सहायक होता है। भगवत भजन से अंत:करण शुद्ध होता है और चित्त शांत होता है जो कठिन—से—कठिन परिस्थितियों में भी मन:स्थिति को मजबूती प्रदान करता है और विपरीत समय से उबरने की शक्ति प्रदान करता है।

     श्रीरामचरितमानस के सुंदरकाण्ड में श्रीहनुमान जी कहते हैं—
          कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई ।
          जब तव सुमिरन भजन न होई ।।
     अर्थात बिपति (दु:ख) की स्थिति वो है जब आपका (प्रभु का) सुमिरन भजन नहीं हो।

     संत कबीर साहेब कहते हैं—
          दु:ख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
          ज्यों सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे होय ।।
     अर्थात, दु:ख की अवस्था में भगवान का भजन तो सभी करते हैं, परंतु भगवान जब कृपा करके दु:ख दूर कर देते हैं तो फिर उन्हें भूल जाते हैं। यदि सुख के समय में, नियमित रूपेण भगवत सुमिरन की जाए तो दु:ख क्यों कर हो।

     देखा जाए तो सुख और दु:ख दोनों मात्र एक अवस्था है। इसे एक समान भाव से जो लेता है वही परम शांति को प्राप्त कर सकता है। अर्थात जब सुख की प्राप्ति हो तो अभिमान नहीं करना चाहिए और इसे भगवान की कृपा दृष्टि मानकर सहर्ष स्वीकार करनी चाहिए। उसी प्रकार दु:ख की स्थिति में भगवान की दी हुई परीक्षा मानकर इसमें सफल होने के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए।
     गुरूनानक साहिब कहते हैं—
          सुख कउ मांगै सभु को, दु:खु न मांगै कोइ ।
          सुखै कइ दु:खु अगला, मनमुखि बूझ न होइ ।
          सुख दु:ख सम करि जाणी अहि सबदि भेदि सुख होइ ।।

     सुख—दु:ख से परे होकर भगवत भजन करने से आत्मिक शांति की प्राप्ति होती है और चित्त भगवान के समीप होता है। गुरूनानक साहिब का यह भजन इसको और स्पष्ट करता है—
          साधो मन का मान तिआगो ।
          काम क्रोध संगत दुरजन की, ताते अहनिस भागो ।।
          सुख दु:ख दोनों सम करि जानै, और मान अपमाना ।
          हरष सोग ते रहे अतीता, तिन जग तत्व पछाना ।।
          असतुति, निंदा दोऊ त्यागे, खोजै पद निरबाना ।
          जन 'नानक' यह खेल ​कठिन है, कोऊ गुरमुख जाना ।।
         
     अर्थात सुख—दु:ख को समान जानते हुए उसमें बिन विचलित होते हुए जो भगवत सुमिरन करते हैं उन्हें ही परमानंद की प्राप्ति होती है।

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