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शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

नयन नीर भरि रोए बकरिया

2:39:00 pm

नयन नीर भरि रोए बकरिया


नयन नीर भरि रोए बकरिया,

कोन कसूरवा मोर हे।

घासे पाते हम चिबाबी

नै किनको त हम सताबी,

करी ने हम बलजोर हे।


अपन बच्चा सन मनुखक बच्चा

दूध पीएलौं, बूझि के सच्चा

लाज ने आबै तोर हे।


शुभ अवसर तोहर घर आओल

मंगलगीत सखी सब गाओल

हमहूँ नचितौं जोर रे।


कोन कसुरवे हम सताओल

रुधिर धार किआ मोर बहाओल

मांस खाओल किआ मोर रे।


कहलथि सद्गुरु सत्य कबीर

जम केर फ़ांस में पड़लै जीव

जनम सुधारो तोर हे।।

नयन नीर भरि रोए बकरिया......

........

साहेब बन्दगी-३🙏🙏🙏

उलझन (हिन्‍दी वर्जन)

2:23:00 pm

 उलझन


बड़ी उलझन में है मेरा मन,

तू तो जाने सब कुछ भगवन।

तू तो जाने सब कुछ भगवन।।


ज्ञान बोध से रहित जभी था,

भगवन तेरे निकट तभी था।

बचपन के मन की निर्मलता,

सुंदर सहज भाव शीतलता।।


निश्छल प्रेम बसा था भीतर,

सहज समर्पित सब कुछ तुम पर।

मन में कोई राग न द्वेष,

सहज प्रेम से पूरित भेष।।


बोध भावना आई जब से,

चित्त प्रदूषित हुआ है तब से।

पाप पुण्य की ढेरों उलझन,

कल-बल-छल में भर्मित ये मन।।


कोटि जतन करूँ निर्मल मन की,

आतम-राम के दिव्य मिलन की।

पर इन्द्री वश से निकलूँ कैसे,

माया मोह तजूं मैं कैसे।।


सदन कसाई की निर्मलता

पातकता में भी पवित्रता

पतित पावन हो मेरे स्वामी,

करो कृपा प्रभु अंतर्यामी।


माया मोह राग औ द्वेष,

काया जनित व्यथा औ क्लेश।

इनके बीच में कृपा विशेष,

मांगे तेरी शरण शुभेश।।

क्यों

1:48:00 pm

 क्यों


प्रभु हम सब तेरी संतति हैं

तुझ से ही पाते शक्ति हैं

पर कोई क्यों हरि हर द्रोही हैं

कुछ ही में क्यों तेरी भक्ति है


समरूप विराजो सब में तुम

सब ही तो फिर पुण्यात्मा हैं

फिर क्यों कर कोई कपटी द्वेषी

केवल कुछ साधु महात्मा हैं


इक तन से श्रमकण रिस रिस बहता

वो तन मन की पीड़ा सहता

फिर भी वो सुख से दूर है क्यों

हाँ कहो प्रभु,  मजबूर है क्यों


एक को तेरी ना कोई कदर

ना भक्ति भाव किया कहीं ठहर

कुत्सित व्यसन, सामिष भोजन

फिर भी सुख ने थामा दामन


तुम कहते भूखा भाव का हूँ

अति ही निर्मल स्वभाव का हूँ

पर निर्मल स्वभाव क्यों दीन दुःखी

कपटी द्वेषी क्यों परम् सुखी


होना तो बहुत कुछ चाहिए था

पर तेरा खेल निराला है

हम अपना चाहने वाले हैं

तू सबका चाहने वाला है


परिस्थितियां तो तेरे ही वश

केवल है कर्म हमारे वश

सत कर्म की अलख जगाता हूँ

बस इससे तुझे रिझाता हूँ


धन संपत्ति सौभाग्य कठिन

नहीं इससे मिटे क्लेश दुर्दिन

*प्रभु तेरी कृपा की चाह मुझे*

*बस रखियो अपनी राह मुझे*

..................... *शुभेश*

बुधवार, 5 जनवरी 2022

आहार चेतना-मानवीय, धार्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष

8:15:00 am

 आहार चेतना-मानवीय, धार्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष

किसी भी मनुष्य का विचार उसके आहार पर निर्भर करता है। सात्विक आहार से शुद्ध विचार की उत्पति होती है। इस सम्बंध में श्रेष्ठजनों से सुनी एक लघुकथा आपके साथ साझा करना चाहता हूं। बहुत समय पहले की बात है, एक परम ज्ञानी तपस्वी ऋषि थे। वे बालपन से ही भगवत प्रेमी एवं सदाचारी थे। वे गांव-गांव घूम कर उपदेश दिया करते थे। एक बार गर्मी के समय वे किसी गांव से गुजर रहे थे। रेगिस्तानी इलाका था, इसलिए उन्हें शीघ्र ही प्यास सताने लगी। बहुत दूर चलने के बाद उन्हें एक कुंआ दिखाई पड़ा। वहां रखी बाल्टी से पानी निकाल कर उन्होंने अपनी प्यास बुझाई। प्यास बुझने के बाद उनके मन में एक विचार आया कि क्यों न मैं ये बाल्टी जल से भर कर अपने साथ रख लूं ताकि आगे यात्रा के दौरान मुझे प्यास लगे तो मुझे प्यास से तड़पना न पड़े। यह सोचकर  उन्होंने बाल्टी पानी से भरी और साथ लेकर आगे बढ़ चले। कुछ देर चलने के पश्चात मानों उनका ध्यान टूटा। वे सोचने लगे मुझ से कितना बड़ा पाप हो गया। मैंने कभी कोई बुरा कार्य नहीं किया और आज मैंने चोरी कर ली। वह भी ऐसे कुंए के बाल्टी की चोरी, जो न जाने कितने प्यासों को तृप्त करती थी। वे यह सोचने के लिए विवश हो गए कि इतना तप एवं भगवत ध्यान के पश्चात भी मेरे मन में ऐसे कुत्सित भाव कैसे उत्पन्न हुए। वे इसका पता लगाने पहुंचे। गांव वालों से उन्हें ज्ञात हुआ कि यह कुंआ एक चोर ने अपने आखिरी समय में पुण्य प्राप्ति होती चोरी के धन से खुदवाई थी। अब उन्हें समझ में आया कि चोरी का यह भाव उनके मन में कैसे उत्पन्न हुआ। कहा भी गया है- जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन।

तो शुद्ध विचार के लिए आहार सात्विक होना परम आवश्यक है। सात्विक आहार अर्थात शाकाहार। शाकाहार हमारे शरीर को अनेक व्याधियों से बचाता है। आज जब संपूर्ण विश्व हमारे गौरवशाली भारतीय संस्कृति पर मंथन कर उसे आत्मसात कर रही है। वहीं गौतम बुद्ध, महावीर जैन, कबीर, नानक जैसे महान पुरूषों की जननी इस वसुंधरा की संतति होकर भी हम पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण में लगे हुए हैं। अभी हाल ही में मैंने एक लेख पढ़ा था जिसमें बताया गया था कि इंग्लैण्ड एवम् अमेरिका में हाल के दशक में शाकाहार अपनाने वालों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। हमें इस विषय पर आत्ममंथन करने की आवश्यकता है कि जिस बौद्ध धर्म ने भारत के बाहर अनेक देशों में अपनी अमिट छाप छोड़ी है, वह अपने ही देश में उपेक्षित क्यों है। महावीर, कबीर, नानक के विचार यहीं अप्रासंगिक क्यों है।

मैं सर्वप्रथम शाकाहार पर बल देने हेतु इसके मानवीय पक्ष को आपके सामने प्रस्तुत करता हूं। दया, संयम, उचित-अनुचित का भेद ज्ञान यही सब गुण तो मनुष्य को मनुष्य बनाता है अन्यथा उसमें और पशु में क्या अंतर रह जाएगा। यही तो मानवता है। अब मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं। यदि आपके घर में कोई शुभ कार्य होता है अर्थात विवाह, जन्मोत्सव आदि। तो उन अवसरों पर भी मांस का सेवन किया जाता है। आप बताएं कि अपने पुत्र के जन्म की खुशी मनाने के लिए किसी और के पुत्र की बलि चढ़ाना उचित है? आप जिस जीव (बकरी, मुर्गी,मछली आदि) का मांस परोस रहे हैं वह भी तो किसी का पुत्र/पुत्री था। खुशी आपके घर आई इसमें उनका क्या दोष जिन्हें अपना संतान खोना पड़ा। तनिक विचार कर देखिए।

अब मैं शाकाहार के धार्मिक पक्ष से आपको अवगत कराना चाहूंगा। भगवान महावीर ने जीव-हत्या को अत्यंत निकृष्ट कार्य माना है एवम् शुद्ध-सात्विक आहार पर सर्वाधिक बल दिया है। उन्होंने तो शुद्ध आहार के साथ-साथ प्राणवायु की शुद्धता पर भी बल दिया है। आप जैन पंथ के मानने वालों को देखते होंगे कि वे मुंह पर कपड़ा बांधकर रखते हैं। वो इसलिए कि भूल से भी श्वास के माध्यम से कोई जीव, कीट-पतंग उनके मुंह में न चला जाए और वे उनकी हत्या के अपराधी न हो जाएं। परन्तु उनके विचार गृहस्थ एवम् सामाजिक व्यवस्था में प्रचलित नहीं हो पाये क्योंकि उनके बनाए नियम अधिकांशतः सन्यास व्यवस्था पर आधारित थे। वहीं गौतम बुद्ध ने इसे थोड़ा सरल बनाकर सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल बनाया। इस कारण वह उस समय बहुत प्रचलित हुआ। उन्होंने भी जीव-हत्या को सर्वथा निषेध बताया। दशावतार में गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का नौवां अवतार माना गया है।

वेदों में भी कहा गया है - ‘‘व्रीहिमत्तं यवमत्तमथोमाषम तिलम् एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दन्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च। ’’ अर्थात चावल खाओ ;व्रीहिम् अत्तं), जौ खाओ (यवम् अत्तं) और उड़द खाओ (अथो माषम्) और तिल खाओ (अथो तिलम्)। हे ऊपर नीचे के दांत (दन्तौ) तुम्हारे (वां) ये भाग (एष भागो) निहित है उत्तम फलादि के लिए (रत्नधेयाय)। किसी नर और मादा को (पितरं मातरं च) मत मारो (मा हिं सिष्टं)। 

संत कबीर साहब ने कहा है-


जस मांसु पशु की तस मांसु नर की, रूधिर-रूधिर एक सारा जी।

पशु की मांस भखै सब कोई, नरहिं न भखै सियारा जी।।

ब्रह्म कुलाल मेदिनी भरिया,  उपजि बिनसि कित गईया जी।

मांसु मछरिया तो पै खैये, जो खेतन मँह बोईया जी।।

माटी के करि देवी-देवा, काटि-काटि जीव देईया जी।

जो तोहरा है सांचा देवा, खेत चरत क्यों न लेईया जी।।

कहँहि कबीर सुनो हो संतो, राम-नाम नित लेईया जी।

जो किछु कियउ जिभ्या के स्वारथ, बदल पराया लेईया जी।। (शब्द-70)

शब्दार्थ :- जैसा पशु का मांस , वैसा ही मनुष्य का मांस है। दोनों में एक ही रक्त बहता है। मांसाहारी पशु मांस का भक्षण करते हैं और जो मनुष्य ऐसा करता है वो सियार के समान है। ईश्वर रूपी कुम्हार (ब्रह्म कुलाल) ने इतने बाग-बगीचे बनाये, फल-फूल बनाया वो सब उपज कर कहां जाते हैं। मांस-मछली खाना तो दोषपूर्ण (पै) है। उसे खाओ जो खेतों में बोआ जाता है। मिट्टी के देवी-देवता बनाकर उन्हें जीवित पशु की बलि चढ़ाते हो। यदि तुम्हारे देवता सचमुच बलि चाहते हैं तो वह खेतों में चरते हुए पशुओं को क्यों नहीं खा जाते। कबीर साहेब कहते हैं कि यह सब कर्म त्याग कर नित राम-नाम (भगवान नाम) का सुमिरन किया करो। अन्यथा तुम जो भी अपने जिह्वा के स्वाद के कारण यह कर रहे हो उसका बदला भी तुम्हें उसी तरह चुकाना पड़ेगा। 

एक दूसरी जगह संत कबीर कहते हैं - ‘‘पंडित एक अचरज बड़ होई। एक मरि मुये अन्न नहिं खाई।। एक मरि सीझै रसोई।। ’’ अर्थात हे पंडितों, ज्ञानियों एक बहुत बड़े अचरज(आश्चर्य) की बात सुनाता हूं। एक जीव के मरने पर तो तुम शोक मनाते हो और अन्न नहिं खाते हो वहीं दूसरी ओर एक जीव को मारकर रसोई बनाते हो।


अब शाकाहार के सम्बंध में कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर भी प्रकाश डालते हैं। हमारे शरीर की रचना कुछ इस प्रकार की है जिससे वह शाकाहारी प्राणियों के समूह में आता है। मांसाहारी जंतुओं में मांस को चीरने-फाड़ने के लिए बेहद नुकीले व पैने दांत रदनक (ब्ंदपदम) पाया जाता है। परंतु मनुष्यों में इसका अभाव होता है। समस्त मांसाहारी जीव अपनी जिह्वा से पानी पीते हैं। परंतु शाकाहारी जंतु पानी घूंट-घूंट कर पीते हैं और गटकते हैं। मनुष्य भी ऐसा ही करता है। आप यदि कहीं विक्षिप्त शव या कोई मांस का टुकड़ा इत्यादि देखते हैं तो सर्वप्रथम घृणा का भाव पैदा होता है। क्योंकि हमारा शरीर की बनावट शाकाहारी जंतु की है, इसलिए मस्तिष्क सम्बंधित तंत्रिका को घृणा का भाव प्रेषित करता है, जिससे हम विक्षिप्त शव या कोई मांस का टुकड़ा इत्यादि देखते ही मुंह फेर लेते है। यदि हमारा शरीर मांसाहारी प्रकृति का होता तो उसके लिए यह लालसा की वस्तु होती। परंतु ऐसा नहीं होता। 

छान्दोग्योपनिषद मे कहा गया है- ‘‘आहारशुद्ध होने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, अंतःकरण के शुद्ध हो जाने से भावना दृढ़ होती है और भावना की स्थिरता से ह्रद्य की समस्त गांठे खुल जाती है।’’


इस सम्पूर्ण आलेख का सार यह है कि अपनी आहार चेतना को जागृत कर हमें शाकाहार पर बल देना चाहिए। शाकाहार ही सर्वोत्तम आहार है।


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रविवार, 2 मई 2021

मेरे सर्वप्रिय सर - संजय सर

12:42:00 am

 *आदरणीय सर* 

यूं तो अल्पावधि का ही मेरा सेवाकाल

सौभाग्यवश, अनेकों श्रेष्ठजनों के सान्निध्य से हुआ निहाल

परन्तु आप से न केवल मार्गदर्शन मिला

अपितु नैतिक ज्ञान के साथ, अतुल्य स्नेह भी मिला

विषम परिस्थितियों में भी सहज रहने की क्षमता

प्रतिकूलता में भी अनुकूलता ढूंढने की कला

सदैव कर्मरत आपका विलक्षण स्वभाव,

 सहज आकर्षित करता, सदैव प्रेरित करता, नहीं रहता दुराव


वर्तमान स्टेशन पर समाप्त हो रहे आपका सेवाकाल

सहज मार्गदर्शन के अभाव का अवश्य रहेगा मलाल


 मंगलमूर्ति प्रभु से है यही प्रार्थना

आपको उन्नति के शिखर पर पहुंचाए

और पूरी करें हर मनोकामना


वर्तमान विषम परिस्थिति में प्रभु आपको सपरिवार स्वस्थ रखें

और सदैव आपके सान्निध्य से हमें लाभान्वित करें🙏🙏🙏🙏🙏


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सादर

शुभेश

रविवार, 24 नवंबर 2019

सुख—दु:ख दोऊ सम करि जानो

11:36:00 am
सुख—दु:ख दोऊ सम करि जानो


sukh-dukh

     'सुख' इसकी परिभाषा भिन्न—भिन्न हो सकती है। भूखे के लिए भोजन प्राप्ति, दरिद्र के लिए धन प्राप्ति, नि:संतान के लिए संतान प्राप्ति, धूप में खड़े व्यक्ति के लिए छांव की प्राप्ति वहीं ठंढ से ठिठुर रहे व्यक्ति के लिए धूप की प्राप्ति सुख हो सकती है।
    अर्थात विभिन्न अवस्थाओं में सुख की परिभाषा अलग—अलग है। तो क्या उपरोक्त वर्णित सुख वास्तविक सुख हैं अर्थात स्थायी हैं। भूखे को यदि भोजन की प्राप्ति हो जाए तो भूख के शांत होने तक ही वह भोजन उसके लिए सुखकारी है। यही स्थिति अन्य के साथ भी है। वास्तविक सुख तो शांति की प्राप्ति है। शांति से परमानंद की प्राप्ति होती है और वही सच्चा सुख हो सकता है।
     तो शांति कैसे सम्भव है, इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है। शांति की प्राप्ति में 'संतोष' अत्यंत सहायक होता है। मैं बचपन से ही सदैव प्रार्थना किया करता था—       
     हे परम पूज्य गुरूदेव जू,
                         कीजै कृपा रहे शांत मन ।
     नहिं चाहिए मुझे और कुछ,
                         प्रभो दीजिए मुझे 'संतोष' धन ।।

    'संतुष्टि के भाव' मन को शांत करते हैं। इसमें भगवत सुमिरन बहुत सहायक होता है। भगवत भजन से अंत:करण शुद्ध होता है और चित्त शांत होता है जो कठिन—से—कठिन परिस्थितियों में भी मन:स्थिति को मजबूती प्रदान करता है और विपरीत समय से उबरने की शक्ति प्रदान करता है।

     श्रीरामचरितमानस के सुंदरकाण्ड में श्रीहनुमान जी कहते हैं—
          कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई ।
          जब तव सुमिरन भजन न होई ।।
     अर्थात बिपति (दु:ख) की स्थिति वो है जब आपका (प्रभु का) सुमिरन भजन नहीं हो।

     संत कबीर साहेब कहते हैं—
          दु:ख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
          ज्यों सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे होय ।।
     अर्थात, दु:ख की अवस्था में भगवान का भजन तो सभी करते हैं, परंतु भगवान जब कृपा करके दु:ख दूर कर देते हैं तो फिर उन्हें भूल जाते हैं। यदि सुख के समय में, नियमित रूपेण भगवत सुमिरन की जाए तो दु:ख क्यों कर हो।

     देखा जाए तो सुख और दु:ख दोनों मात्र एक अवस्था है। इसे एक समान भाव से जो लेता है वही परम शांति को प्राप्त कर सकता है। अर्थात जब सुख की प्राप्ति हो तो अभिमान नहीं करना चाहिए और इसे भगवान की कृपा दृष्टि मानकर सहर्ष स्वीकार करनी चाहिए। उसी प्रकार दु:ख की स्थिति में भगवान की दी हुई परीक्षा मानकर इसमें सफल होने के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए।
     गुरूनानक साहिब कहते हैं—
          सुख कउ मांगै सभु को, दु:खु न मांगै कोइ ।
          सुखै कइ दु:खु अगला, मनमुखि बूझ न होइ ।
          सुख दु:ख सम करि जाणी अहि सबदि भेदि सुख होइ ।।

     सुख—दु:ख से परे होकर भगवत भजन करने से आत्मिक शांति की प्राप्ति होती है और चित्त भगवान के समीप होता है। गुरूनानक साहिब का यह भजन इसको और स्पष्ट करता है—
          साधो मन का मान तिआगो ।
          काम क्रोध संगत दुरजन की, ताते अहनिस भागो ।।
          सुख दु:ख दोनों सम करि जानै, और मान अपमाना ।
          हरष सोग ते रहे अतीता, तिन जग तत्व पछाना ।।
          असतुति, निंदा दोऊ त्यागे, खोजै पद निरबाना ।
          जन 'नानक' यह खेल ​कठिन है, कोऊ गुरमुख जाना ।।
         
     अर्थात सुख—दु:ख को समान जानते हुए उसमें बिन विचलित होते हुए जो भगवत सुमिरन करते हैं उन्हें ही परमानंद की प्राप्ति होती है।

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

शिक्षक दिवस पर सभी गुरूजनों को कोटि—कोटि वंदन

8:08:00 am
teachers-day

आज शिक्षक दिवस है अर्थात अपने गुरूजनों को स्मरण करने का पावन दिवस। यूं तो कभी भी उन्हें विस्मृत करने का प्रश्न ही नहीं उठता, अपितु एक दिन ऐसा हमें मिला है जिस दिन हमें उन्हें स्मरण कर उनके सुकृत्यों, दीक्षाओं से सीख ले सकते हैं, जीवन के बाधाओं से लड़ने हेतु पुन: प्रयासरत हो सकते हैं।

मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे भी अपने जीवन में कदम—कदम पर ऐसे गुरूजनों का अनुग्रह प्राप्त हुआ जिन्होंने मुझे एक नई दिशा दी। सर्वप्रथम गुरू स्वाभाविक रूप से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उनके माता—पिता होते हैं। मेरे जीवन में भी मेरी मॉं और पापा ने प्रथम गुरू की उल्लेखनीय भूमिका निभाई। आज मेरे विचारों में थोड़े—बहुत जो भी सत् गुण रूपी भाव विराजमान हैं, वह उनके ही सीखों का परिणाम है। गणित के कठिन—से—कठिन सूत्र हों अथवा संस्कृत के धातु रूपों को उनको सरलतम रूप में समझा कर कंठाग्र कराना सब पापा के शिक्षाओं का ही परिणाम है। बचपन में एक बार मुझे घर से पैसे निकालकर चॉकलेट—बिस्किट खाने की आदत लग गयी थी। पापा जानकर अत्यंत व्यथित हुए, परंतु उनके समझाने के तरीके ने न मेरी आदत छुड़ाई बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से गहरा प्रभाव भी डाला। हाथ उठाने के स्थान पर उनका आंखें दिखाना अथवा आंखें फेर लेना ही काफी होता है। कहा भी गया है: मातु—पिता ही प्रथम गुरू होते हैं। उन्हें सप्रेम साहेब—बन्दगी।

इसके बाद प्राथमिक विद्यालय के जगन्नाथ सर, रामरेखा सर, पाण्डेय सर हों या कुमुद चाची। उन्होंने जीवन पथ पर आगे बढने में जो ज्ञान रूपी बीज बोये उनके लिए हृदय की गहराईयों से आभार और वंदन। फिर माध्यमिक विद्यालय के गयासुद्दीन सर, रवीन्द्र सर, देवेन्द्र सर, नारायण सर, कुंवर सर और हरिवंश सर ने इन बीजों को अंकुरित करने के लिए ज्ञान रूपी जल से मुझे भली—भांति सींचा, उनको सादर वंदन। उच्च माध्यमिक विद्यालय में शारदानन्द सर, अनिरूद्ध सर,  निराला सर, बलदेव सर आदि अनेकों शिक्षकों ने मुझ जैसे अनेकों शिक्षार्थियों के ज्ञान के पौधे को साकार रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनकों आत्मिक आभार।
आदरणीय दिलीप सर और दिनेश सर ने मेरे शैक्षणिक जीवन को प्रगति पथ पर गतिशील करने में  बहुत सहायता की उनको सादर प्रणाम। 

आज भी मुझे याद है, जब मेरी बोर्ड परीक्षा का परिणाम पेण्डिंग लिस्ट में आया था, मेरा रो—रोकर बुरा हाल था। उस समय आदरणीय दिनेश सर ने आगे बढने की प्रेरणा देते हुए मुझे हिम्मत दिया था जिसे मैं कभी भी नहीं विस्मृत कर सकता। सदैव की तरह संकोची प्रवृति का होने के कारण मैं कभी भी अपनी भावनाओं को उनके सम्मुख अभिव्यक्त न कर पाया।  कभी भी अनजाने में मुझसे हुई भूल के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं। उन्हें हार्दिक वंदन।

मुझे प्रतियोगी जीवन में सफल बनाने हेतु ज्ञान के नव अंकुर डालने वाले आदरणीय संतोष सर का उल्लेख किये बिना मेरा निवेदन अधूरा ही रहेगा। उन्होंने अपने सरल—स्वाभाविक तरीकों से समझाकर मुझे प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने में सहायता प्रदान की। उन्हें हार्दिक वंदन।

मेरे छोटे—बड़े भाई, मित्र, जीवन संगिनी और मेरी बेटी से भी मुझे बहुत—कुछ सीखने को मिला। इसलिए ये भी आदरणीय हैं और इस अवसर पर मैं इन्हें भी नमन करता हूं। कार्यालयीन जीवन में आदरणीय मिथिलेश सर, बलविन्‍दर सर, देवेन्‍द्र सर, देवराज सर, वीणा मैडम, आदि अनेकों श्रेष्‍ठजनों ने गुरू की भूमिका निभाई। आज के दिन मैं उन्‍हें भी नमन करता हूं।

मेरे धार्मिक जीवन को दृढ कर नई दिशा देने हेतु मुझ पर अत्यंत कृपालु करने वाले प्रात: स्मरणीय परम पूज्य गुरूदेव मालिक बाबा ने मुझे दीक्षा देकर मेरे अनेकों जन्मों के सुकृत्यों का सुफल दिया और जीवनमार्ग में आने वाली बाधाओं के निदान हेतु मार्ग खोल दिये। उनको कोटि—कोटि वंदन। सप्रेम साहेब—बन्दगी। मैं सदैव उनका ऋणी रहूंगा।

आप सभी गुरूजनों को कोटि—कोटि वंदन।

गुरू: ब्रह्मा गुरू: विष्णु, गुरू: देवो महेश्वर: ।
गुरू: साक्षात् परम् ब्रह्म:, तस्मै श्री गुरूवे नम: ।।
.............................................................शुभेश

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

मॉं लक्ष्‍मी तेरी जय हो

11:50:00 am
maa-laxmi-shubh-diwali


दीपावली अर्थात़ दीपोत्सव
तिमिर से प्रकाश की ओर सभी उद्यत
हे मॉं मैं भी भटक रहा भवकूपों में
तुझे जानकर भी अनजान बना रहा मैं

अपनी तैंतीस वर्षीय आयु में सभी
तैंतीस कोटि देवताओं में तेरी महिमा पहचान गया
तुझ बिन सकल गुण निरर्थक
सभी श्रम बेकार, बस तेरी महिमा है अपार, मान गया

मान गया मॉं, मान गया
सब कुछ पहचान गया मॉं पहचान गया
क्षमाप्रार्थी हूं मॉं, कभी तेरी पूजा नहीं की
मॉं सरस्वती के भाव में बहता रहा, प्रीत दूजा नहीं की

तेरी कृपा से मॉं सभी तर जाते हैं
जितने भी दुःख हों, सभी कट जाते हैं
तेरी कृपा हो तो सभी अवगुण
गुण में परिवर्तित हो जाते हैं

मैं सादगी के चक्कर में पड़ा रहा मॉं, हमें माफ करना
इतना भी न समझ सका धवल वस्त्र पर
हल्की सी कजरी भी कोसों दूर तक नजर आती है
और लोगों को पूरे श्वेत वस्त्र नहीं
बस वो कजरी ही दिख पाती है

खैर मैं तो अज्ञानी हूं, मुझे माफ करना
चहूं ओर से निराष हो थक गया हूं शरण लेना
मॉं मुझे कुछ अधिक की आस नहीं
बस इतनी कृपा करना, बनूं मैं स्वयं का परिहास नहीं

सत्कर्म की शक्ति देना, सेवा-भाव भक्ति देना
उचित फल प्राप्ति देना, सकल परिवार समृद्धि देना
मातु-पिता के चरणों में भक्ति देना
संगिनी की शक्ति देना

संतति और बांधवों का सम्बल बनूं
सकल परिवार में स्नेह रस भरूं
हे मॉं लक्ष्मी, वैष्णवी शरण रखना
दोष क्षमाकर, सदैव कृपा करना

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

संत कबीर के विचार -आज कितने प्रासंगिक

6:56:00 pm
संत कबीर के विचार -आज कितने प्रासंगिक

भारत की पावन वसुंधरा अनेकों महान साधु - संतों की जननी रही है, जिन्‍होंने अपने पावन जीवन-दर्शन  से भारत  ही  नहीं सम्‍पूर्ण विश्‍व को लाभान्वित किया है। ऐसे ही संतों की श्रेणी में अग्रणी नाम परम तेजस्‍वी संत कबीर का है।  इस धरा-धाम पर संत कबीर  का  पदार्पण  ऐसे समय  में  हुआ जब एक ओर तो भारतीय जनमानस हिन्‍दू धर्म में गहरी पैठ बना चुके आडम्‍बरों व कुप्रथाओं से लड़ रहा था, वहीं दूसरी ओर आततायी लोदी शासकों के अन्‍याय और जबरन धर्म-परिवर्तन का शिकार हो रहा था। 
विभिन्‍न विद्वानों-इतिहासकारों के अनुसार संत कबीर का जन्‍मकाल 1398 ई. के आस-पास था। वे सैय्यद और लोदी शासकों के समकालीन थे। संत कबीर के जन्‍म के सम्‍बंध में कबीर-पंथियों में एक दोहा प्रचलित है-

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्‍द्रवार एक ठाठ ठए ।
ज्‍येष्‍ठ सुदी बरसाईत को, पूरनमासी प्रकट भए ।।

अर्थात् संत कबीर का प्राकट्य काल विक्रमी संवत 1455 संवत ज्‍येष्‍ठ मास के पुर्णिमा के दिन हुआ था। कबीर ने सदैव दया और प्रेम जैसी मानवतावादी भावों को अपने विचारों में अधिक स्‍थान दिया है-

दया राखि धरम को पाले, जग से रहे उदासी ।
अपना सा जी सबका जाने, ताहि मिले अविनाशी ।।

जहां दया, तहां धर्म है, जहां लोभ तहां पाप ।
जहां क्रोध तहां काल है, जहां क्षमा वहां आप ।।

जीवन की सत्‍यता का बोध कराने के लिए उन्‍होंने प्रभावशाली अभिव्‍यक्ति दी है जो उनके साखियों में स्‍पष्‍टत: परिलक्षित होता है –
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझ-सा बुरा न कोय ।।

चुन-चुन तिनका महल बनाया, लोग कहें घर मेरा ।
ना घर मेरा, ना घर तेरा, चिडि़या रैन बसेरा ।।

हाड़ जड़े ज्‍यों लाकड़ी, केस जड़े जस घास ।
पानी केरा बुलबुला, अस मानुष की जात ।।

पानी ही ते हिम भया, हिम होय गया बिलाय ।
जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाय ।।

कबीर दिखावटी प्रेम के स्‍थान पर आंतरिक प्रेम और लौकिक प्रेम के स्‍थान पर परमात्‍मा के प्रति निश्‍छल प्रेम को प्रमुखता देते हैं। उनके अनुसार प्रेम सर्वत्र है -

प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रूचै, शीश देइ लै जाय ।।

जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं ।
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दोउ न समाय ।।

बाहर क्‍या दिखलाइए, अंतर जपिए राम ।
कहां काज संसार से, तुझे धनी से काम ।।

कबीर अपने साखियों में मानव जीवन के यथार्थ से भी परिचय कराते हैं और जीवनरूपी नाव को खेने का ढंग भी सिखलाते हैं-

कबिरा गर्व न कीजिए, कबहुं न हंसिए कोई ।
अजहुं नाव समुद्र में, ना जाने का होई।।

जो तोकूं कांटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, वा कू है तिरशूल ।।

निन्‍दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय ।
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करे सुभाय ।।

वृक्ष कबहुं न फल भखै, नदी न संचै नीर ।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर ।।

संत कबीर तन की शुद्धता के स्‍थान पर मन की शुद्धता को अधिक महत्‍व देते हैं-

नहाए धोय क्‍या हुआ, ज्‍यों मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ।।

संत कबीर ने धर्म के नाम पर हो रहे आडम्‍बरों का कड़ा विरोध किया और विभिन्‍न कुप्रथाओं पर आमजनों की भाषा में ही आघात किया –

पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़ ।
ता से तो चक्‍की भली, पीस खाय संसार ।।

हिन्‍दू-तुरूक की एक राह है, सतगुरू इहै बताई ।
कहहि कबीर सुनहु हो सन्‍तों, राम न कहेउ खुदाई ।।

कबीर दिखावटी स्‍वांग को त्‍याग कर निर्मल हृदय से भगवत भजन की सलाह देते हैं –

कबीर जपनी काठ की, क्‍या दिखलावे मोहि ।
हृदय नाम न जापिहें, यह जपनी क्‍या होहि ।।

पिया का मारग सुगम है, तेरा भजन अवेड़ा ।
नाच न जानै बापुड़ी, कहता आंगन टेढ़ा ।।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ।।

वर्तमान समय भी कुछ अलग नहीं है। निरंतर धर्म के नाम पर हो रही हिंसा और अंधविश्‍वास की भेंट चढ रही मानव जिन्‍दगियों को देख लगता है कि हमने संत कबीर के विचारों को पूरी तरह विस्‍मृत कर दिया है। संत कबीर केवल धार्मिक सुधारक ही नहीं थे, उनके विचारों ने समाज को एक नई दिशा दी। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक है। उन्‍होंने मानव को जीवमात्र से प्रेम करना सिखलाया। बाह्य आडम्‍बरों को सिरे से नकारते हुए सच्‍चे मन से भगवत भजन की सलाह दी। 
 ओ३म्  ।।    शांति:    ।।    शांति:    ।।    शांति:    ।।

पानी

6:47:00 pm
 पानी
प्‍यास से गला सूख रहा था, परंतु कहीं पानी नजर नहीं आ रहा था। मैंने घर के सारे बोतल,  डब्‍बे  यहां तक  कि किचन के सारे बरतन को कई बार उलट-पलट कर देख लिया लेकिन पानी की एक बूंद भी नहीं मिली। मैं प्‍यास से बेचैन होकर छुट्टन के दुकान की ओर भागा। पहुंचते-पहुंचते मैं हांफने लगा था। मैंने पानी की एक बोतल मांगी। उसने लगभग झल्‍लाते हुए बोला- अरे भाई नहीं है पानी। सुबह से एक ही बात बोल-बोलकर थक गया हूं। भाई पानी की बोतल की सप्‍लाई नहीं हो रही है। पूरे दस दिन से मैंने पानी की एक बोतल भी नहीं बेची। हम जैसों के नसीब में ऐसी अनमोल चीजें कहां। मैं बदहवास सा चीख पड़ा। क्‍या मतलब, पानी नहीं है। प्‍यास के मारे मैं मरा जा रहा हूं और जब मैं पानी खरीदने आया हूं तो तुम भी नहीं दे रहे हो। क्‍या हो गया है, अब मैं कहां से पानी लाऊं। छुट्टन ने समझाते हुए कहा- भाया पीने के पानी की बहुत मार मची है। दिन में दो बजे नलकूप विभाग की गाड़ी आती है और सभी घरों के लिए प्रति व्‍यक्ति एक लीटर के हिसाब से पानी देती है। अब तो उसी का इंतजार करना पड़ेगा, कोई और चारा नहीं है। मैंने उसकी ओर आशा भरी निगाहों से देखा, शायद वो अपने लिए रखे पानी में से थोड़ा मुझे भी पिला दे। पर उसने दो-टूक लहजे में कह दिया- और चाहे जो कुछ मांग लो परंतु पानी नहीं। 2 बजे से पहले पानी नहीं मिलेगा और मैंने एक गिलास पानी अपने बेटे के लिए बचा कर रखा है जो प्‍यासा स्‍कूल से लौटेगा तब उसे दूंगा। 
मैं हताश-निराश वापस घर की ओर लौट पड़ा। अब दो बजे तक इंतजार करने के सिवाय कोई चारा नहीं था। परंतु अभी तो केवल 10 ही बजे थे। चार घण्‍टे तक मैं प्‍यास से तड़पता रहूंगा। हाय ये क्‍या हो गया है। बेसिन में लगा नल मुझे देख मुंह चिढा रहा था, मानो मन ही मन मुझे कोस रहा हो – और पानी करो बर्बाद। ब्रश करते समय और सेविंग करते समय नल खुला छोड़कर जाने कितने लीटर पानी बर्बाद कर दिये अब भुगतो। बाथरूम में लगा झरना तो मानो मेरी बेबसी पर अट्टहास लगा रहा था- घंटों तक झरने के नीचे नहाने का आनंद लेते समय तनिक भी भान नहीं रहा कि कितना पानी व्‍यर्थ जा रहा। वहीं गमले में लगे फूलों की सूखी डंठल और आंगन में लगभग ठूंठ हो चुका आम और कटहल के पेड़ मेरी दशा पर मानो तरस खाते हुए बोल रहे थे – इतने व्‍यर्थ पानी बर्बाद करने के स्‍थान पर यदि हमें सींचा होता और छोटे-छोटे पौधों की सेवा की होती तो आज ये नौबत न आती। 
पूरे कॉलोनी में कहीं हरे-भरे पेड़ नहीं थे। कहीं-कहीं सूखे तने दिखलाई पड़ रहे थे। तभी बाहर कोलाहल सुनाई पड़ा। लोगों की भीड़ लगी थी, पानी वाली गाड़ी आ गई थी। लोग लाईन लगा रहे थे। मैं भी भागा-भागा गया और विनती की, कि पहले मुझे पानी दें मैं बहुत प्‍यासा हूं। पानी बांटने वाले ने बोला- ठीक है अपना वाटर कार्ड निकालो। अब ये क्‍या बला है? कौन-सा वाटर कार्ड। हे भगवान अभी तक आपने वाटर कार्ड नहीं बनवाया, फिर तो मैं कुछ भी नहीं कर सकता। सरकार ने पानी के ब्‍लैक मार्केटिंग रोकने के लिए सबको वाटर कार्ड जारी किया है, बिना उसके पानी नहीं मिलेगा। पानी देने वाला कर्मचारी यह कहकर दूसरों को पानी देने में व्‍यस्‍त हो गया। मैं प्‍यास के मारे पागल हुआ जा रहा था। मेरे आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। मैं हाथ जोड़कर भगवान से विनती करने लगा- हे भगवान, अब तेरा ही आसरा है। अब तुम ही मेरे प्राणों की रक्षा कर सकते हो। तभी मेरे जीभ पर पानी की कुछ बूंदे पड़ी। मानों भगवान ने मेरी प्रार्थना से द्रवित होकर बादल को बारिश करने भेज दिया हो। 


फिर आंखों पर पानी की कुछ बूंदें पड़ी। साथ में पत्‍नी का स्‍वर सुनाई पड़ा। कब तक सोते रहोगे ऑफिस नहीं जाना क्‍या। मैं आंख मलते हुए उठ बैठा। तो मैं सपना देख रहा था। कितना भयानक सपना था। लेकिन इस सपने को सच होते देर नहीं लगेगी यदि समय रहते हम पानी और वनों का महत्‍व नहीं समझेंगे। इसलिए पेड़ लगायें और पर्यावरण को बचायें जिससे आपकी अगली पीढ़ी को इस सपने से रूबरू न होना पड़े। 

हम आम जनता

6:43:00 pm
हम आम जनता

हम आम जनता – हम आम जनता
जो है सबसे  सस्‍ता – जो है सबसे सस्‍ता
चुनावी वादों में बिन मोल बिकते हैं
नई सरकार आने तक खुशफहमी में रहते हैं

हाय री आम जनता, सरकारें तो बदली
पर तेरी किस्‍मत, वो कहां बदली

अब आम भी कहां, अमरूद भी कहां
तेरी किस्‍मत में तो पपीता भी नहीं
तू आम जनता है – आम जनता
हां, तू मुर्दा तो नहीं, पर जिन्‍दा भी नहीं

ना मुझ पर भड़कने से क्‍या होगा
अरे जिन्‍दा हो तो जिन्‍दा दिखो
तुम्‍हें तलवार चलाने कौन कहता
बस कलम ही काफी है, कुछ तो लिखो

तुम लिखो कि ये तुम्‍हारा अधिकार है
जनता की जनता के लिए चुनी हुई सरकार है

लिखो कि हमारे ‘कर’ का क्‍या किया
विकास देश का हुआ कि अपना किया
जो चुनाव से पहले तो बेकार थे
कभी पैदल तो कभी साइकल सवार थे

तुम लिखो कि वो कैसे कार-ओ-कार हैं
बंगले खजानों से कैसे माल-ओ-माल हैं
लिखो विकास गजब का हुआ जनाब है
जो पी रहे वो खून है हमारा, ना शराब है

‘शुभेश’ तुम लिखो,
तुम्‍हारी लेखनी रंग लाएगी कभी
क्‍या पता, मुर्दों में भी जान आएगी कभी

हे प्रभु - निवेदन

6:39:00 pm
हे प्रभु - निवेदन

हर भेष में तू, सब देश में तू
कण-कण में तू ही, हर क्षण में तू ही
तुम राग में हो, अनुराग में हो
तुम प्रीत, प्रेम और त्‍याग में हो

तुम मातु-पिता, तुम बन्‍धु-सखा
तुम सन्‍यासी, तुम जोग-जती
प्रभु राम तू ही, और कृष्‍ण तू ही
गौतम-महावीर-नानक तूम ही

तुम सूर तुलसी और मीरा हो
जन-जन का मान कबीरा हो
कर्म तू ही, सब धर्म तू ही
जीवन के सारे मर्म तू ही

घट बाहर भी, घट भीतर भी
घट में बसो, सब घट में रमो
सब जीव में तुम समदरशी हो
सुख-दु:ख में सदा मन हरषी हो

सर्वत्र तू ही, सर्वज्ञ तू ही
ज्ञान तू ही, मर्मज्ञ तू ही
तुम दूर नही, तुम पास में हो
तुम आस में हो विश्‍वास में हो

हम जाएं कहां कुछ भान नहीं
कहें कष्‍ट किसे कुछ ज्ञान नहीं
सर्वत्र तू ही, फिर कष्‍ट है क्‍यूं
सर्वज्ञ तू ही, फिर मौन है क्‍यूं

प्रभु मैं अज्ञानी हूं शायद
कुछ मान-गुमान हमें शायद
तुम पुत्र जानि हमें माफ करो
हमको अब भव से पार करो

अब और नहीं कुछ तृष्‍णा शेष
विनती कर जोडि़ करै ‘शुभेश’

हिन्दी दिवस

6:33:00 pm
हिन्दी दिवस

आज फिर हिन्दुस्तान में हिन्दी दिवस मनाएँगे।
साहब लोग अंग्रेजी सूट में आएंगे, हिंदी की गाथा गाएंगे।।
अधीनस्थों को अनुरोध नहीं रिक्वेस्ट करेंगे।
सब पत्रों के रिप्लाई हिंदी में देना, बस पखवाड़े भर कष्ट करो।
फिर करना अंग्रेजी वाली, मेरे ऊपर ट्रस्ट करो ।।
हमको भी उत्तर देना है, कुछ खानापूर्ति करना है।
साज-सज्जा में कमी नही हो, इस मद भी खर्चा करना है।।
हिंदी है भारत की बिंदी, सारे जग को दिखलाएंगे।
कमी नहीं कुछ करना तुम हम हिंदी दिवस मनाएंगे।।
हिंदुस्तान की किस्मत कैसी, हिंदी दिवस मनाई जाती।
पर घर-घर मे गुण कथित सभ्यों की भाषा अंग्रेजी की गाई जाती।।
वो अंग्रेजी जिसने वर्षों हम पर राज किया ।
झूठी चकाचौंध में पथभ्रष्ट समाज किया ।।
हमारे विकास, एकता, अखंडता की सबसे बड़ी बाधक अंग्रेजी की जो गुण गाते हैं।
शुभेश वही देखो आज कितने तन्मयता से हिन्दी दिवस मनाते हैं।।

बुधवार, 15 अगस्त 2018

शिकायती लाल

2:32:00 pm
शिकायती लाल

बन्दौं तुमको गिरधर गोपाल
जगत—पिता सबके प्रतिपाल
अपनी शिकायतों का पिटारा ले,
फिर पहुंचा ये शिकायती लाल
तुम भी मुझसे त्रस्त हो गये होगे
शायद इसीलिए मुंह फेर लिये होगे
मैं क्या करूं भगवन मैं भी विवश हूं,
आपने कुछ विकल्प कहां छोड़ा है
मैं जानता हूं कि आपके पास बहुतेरे काम हैं,
पर बताएं मुझे किसके भरोसे छोड़ा है
प्रभु आप तो सर्वज्ञ हैं, फिर भी मौन हैं
बताएं हम कहां जाएं और कौन है
कर्म ही है वश मेरे, वो करता हूं
धर्म बस दया है, जो करता हूं
यूं तो मैं खुद दया का पात्र हूं भगवन तेरे
पर धरम हेतु हर जीव पर सदैव दया करता भगवन मेरे
गुरूवर कह गये हैं— दया धरम का मूल है
सद्गुरू कबीर भी कह गये—

दया राखि धरम को पाले, जग से रहे उदासी
अपना सा जी सबका जाने ताहि मिले अविनाशी

बस इन्हीं वचनों का पालन कर रहा हूं
पग—पग फूंक कर कदम रख रहा हूं
न किसी का मुझसे अहित हो
न कुछ टूटे न कोई मुझसे रूठे
पर अविनाशी ईश्वर ही मुझसे रूठ गये हैं
और किसको मनायें हम तो सचमुच टूट गये हैं

साहब तुमही दयालु हो, तुम लगि मेरी दौर
जैसे काग जहाज को, सूझे और न ठौर

कहीं और ठौर नहीं प्रभु, नाव भवसागर में हिचकोले खा रही
प्रभु हम क्या करें, कहां जाएं, कुछ समझ में नहीं आ रही

साहब से सब होत हैं, बन्दा से कछु नाहिं
राई से पर्वत करें, पर्वत राई माहिं

परंतु तुम तो जैसे मेरी परीक्षा लेने पर ही तुले हो
मानो मेरी व्यथा से आंख मूंद लिये हो
तभी तो राई समान दु:ख को भी पहाड़ बना दिये हो
शांति—प्रेम—संतोष को ही अपने पास बुला लिये हो
मैं परबत समान सुख की अभिलाषा नहीं रखता
बस मेरा कर्तव्य है, जो कर्म वही हूं करता
अब इनके अभाव में मैं क्रोध न करूं तो क्या करूं
विवश हो शिकायतों का पिटारा न खोलूं तो क्या करूं
अब तुम ही दु:ख भंजन हो, सब दुखियारी के
तो राह दिखाओ तुम, सर्व सहायी हो

न, किसी और दर की, कोई आस न शेष
प्रभु कृपा करो अब तेरे शरण 'शुभेश'

रविवार, 5 अगस्त 2018

Happy Friendship Day

5:00:00 pm
Happy Friendship Day
happy-friendship-day

मित्रता दिवस की ढेरों बधाई
हॉं आप सबों को Happy Friendship Day भाई
पर आज के दौर में सच्चा मित्र कौन है
क्या वो जो मित्र के दु:खों पर भी मौन है
या वो जो मित्र बना स्वार्थ हेतु
ना जी मित्र तो होते परमार्थ हेतु
लो फिर भगवान को ही मित्र बना लो
और समस्त दु:खों से ​मुक्ति पा लो
हॉं ये सच है, भगवान सबके मित्र बन जाते हैं
परंतु क्या सभी भक्त सच्चे मित्र बन पाते हैं
वो सुदामा सी मित्रता जिसने कृष्ण की दरिद्रता अपने नाम कर ली
वो कृष्ण की मित्रता जिसने अपना सबकुछ सुदामा के नाम कर दी

भगवान ने पग—पग पर हमे मित्र दिया है
क्या आपने उसे महसूस किया है
जन्म लिया तो मित्र मॉं बन आई
क्या निज रक्त से और कोई सींचे है भाई
फिर पिता ​बनि सम्मुख आए
प्रथम गुरू जो प्रेम, स्नेह और अनुशासन का पाठ पढ़ाए
फिर लंगोट मण्डली और भाई—बहन की वो टोली
जिन संग हम सबने खेली आॅंख—मिचौली
अपनी ही धुन में वो मस्त मलंग सा
मस्ती से भरा, नहीं फिकर किसी का
फिर boyfriend-girlfriend वाली दोस्ती
दुनिया लगे दीवानों जैसी
फिर पति—पत्नी का मित्र बन आना
सुख—दु:ख जो सम करि जाना
फिर संतान घर खुशियां लाई
जिसने बचपन की याद दिलाई
तो 'शुभेश' पग—पग पर है मित्रता
मत करो किसी से शत्रुता

हे प्रभु

4:57:00 pm
हे प्रभु
he-prabhu

हर भेष में छी, सब देश में छी
कण—कण में अहाँ, हर क्षण में अहीं
अहाँ राग में छी, अनुराग में छी
अहाँ प्रीत प्रेम और त्याग में छी
अहिं मातु—पिता, अहिं बन्धु—सखा
अहिं सन्यासी, अहीं गृहस्थी
प्रभु राम अहीं, अहिं कृष्ण भी छी
अहिं गौतम, महावीर, नानक भी छी
अहाँ सूर—तुलसी आ मीरा छी
अहाँ जन—जन केर मान कबीरा छी
कर्म अहीं, सब धर्म अहीं
जीवन केर सबटा मर्म अहीं
घट बाहेर भी, घट भीतर भी
घट—घट में रमी, हर घट में बसी
सब जीव में छी, समदरशी छी
सुख—दु:ख में अहाँ मन हरषी छी
सर्वत्र अहाँ सर्वज्ञ अहीं
ज्ञान अहाँ मर्मज्ञ अहीं
अहाँ दूर भी छी, अहाँ पास भी छी
अहाँ आस में छी, विश्वास में छी

हम जाउ कत' किछु नै बूझाए
कहि कष्ट कत' किछु नै सूझाए
सर्वत्र अ​हीं फेर कष्ट किआ
सर्वज्ञ अहाँ फेर दु:ख किआ

प्रभु हम अज्ञानी बुझि परए
किछु कर्म उलट जौं भेल होअए
पुत्र जानि अहाँ माफ करू
हमरो भवसागर पार करू
आओर हमरा इच्छा किछिओ ने शेष
विनती कर जोड़ि करै 'शुभेश'

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

बचपन

10:57:00 pm
बचपन

स्वप्निल नैन निहारत रे मन,
कहाँ खो गया वो बचपन
वो बचपन जो बेफ़िकरा
सर्वत्र प्रेम बिखरा बिखरा
करम धरम का भान नहीं
मन मे कोई गुमान नहीं
बन पंछी उड़ता रहता
परीलोक जाकर बसता
सब से प्रीत सभी कोई मीता
सुंदर सहज भाव नहीं रीता
सहज प्रेम घट भीतर था
तन हो न, मन निर्मल था
निर्मल घट में राम थे बसते
हल्की सी मुस्कान से सजते
शुभेश कितनी सहज कितनी सुन्दर,
वो दुनिया थी अधिकार कर्तव्य से जुदा जुदा।
मन्दिर-मस्जिद मन में नहीं
एक ही लेखे राम खुदा।।

शनिवार, 14 जुलाई 2018

यौ भगवान - O My Lord - हे भगवान

3:46:00 pm
यौ भगवान

shubhesh
यौ भगवान, यौ भगवान
किया बनेलौं हमरा,ई नइ जानि
यौ भगवान..............

हम अज्ञानी, अवगुणक निशानी
अपन बुराई हम कतेक बखानी'
हमरा सन दु​र्बुद्धि नै कोनो सन्तान ।
यौ भगवान.................

सर्व दु:खदायी, कष्ट सहायी
अमंगलकारी आ प्रेम भिखारी
हमरा सन साजन नै सगरो जहान ।।
यौ भगवान.................

हम लोभी अति तामसी ढोंगी
जिद्दी, क्रोधी, दिखावटी जोगी
हमरा सन भ्राता—मित्र नै कोनो बेकाम ।।
यौ भगवान.................

हमरा सं' केकरो जे उपकार होइतै
हमरो कारण जे केओ खुश भ' जैतै
हमरो पाबि सब धन्य कहाबै
तखन ने 'शुभेश' बुझता जे हमहूं इन्सान ।।
यौ भगवान.................

मंगलवार, 1 मई 2018

विकास

10:47:00 pm
विकास
देश तरक्की कर रहा है
हम विकसित हो रहे हैं
हमारे दादे-परदादे के ज़माने में, 
पक्की सड़कें भी नहीं थी
अब मेट्रो और बुलेट ट्रेन की बात होती है
पहले अधिकारी के सामने आने पर भी लोग भय खाते थे
कहीं डाँट पड़ जाए तो पतलून गीली हो जाती थी
अब तो लिखित कार्रवाई का असर भी नहीं होता
उनकी बधिर होने की क्षमता का भी विकास हुआ है, जूं तक नही रेंगती
पहले औरतें पर्दा करती थी, मर्द भी धाक करते थे
वो नारी सम्मान, मातृ-पितृ पूजन, वो संस्कार की बातें
वो पलक उठाये बिन बातें करना, पैर के अंगूठे से मिट्टी कुरेदना
वो अश्कों का कभी बाहर आना, कभी अंदर ही रह जाना
वो सब इक गुजरा दौर था
ये तो नया दौर है
तब प्रेम भी सर्वत्र था
मातृ-प्रेम, पितृ-प्रेम, भातृ-प्रेम, मित्र-प्रेम
प्रेयसी-प्रेम, पत्नी-प्रेम, पति-प्रेम
प्रेम भी एक संस्कार था
आज उसका भी विकास हो गया है
स्वार्थ से अटूट गठबंधन हो गया है
पहले नारी के अनेक रूपों में भी
माँ-बहन-बेटी नजर आते थे
परंतु आज दृष्टिकोण का भी विकास हो गया है
आज नारी के हर रूप में प्रेयसी और भोग्या ही नजर आती है
भई इंसानियत का विकास तो चरम सीमा तक पहुँच गया है
इससे अधिक विकास तो कोई माई का लाल कर भी नही सकता
हमने भेद-भाव की हर सीमा को हटा दिया है
जवान और बच्ची का भेद-भाव तक मिटा दिया है
हमने शोषित और शोषक का फर्क भी मिटा दिया है
विकास की परिभाषा में नया अध्याय जोड़ दिया है
शोषितों के साथ-साथ, शोषकों का भी पोषण करते हैं
बोलो 'शुभेश' क्या अब भी कहोगे की विकास नही हुआ और हम शोषण करते हैं।।


रविवार, 29 अप्रैल 2018

जीवन की डगर

10:33:00 am
जीवन की डगर
वो पहला क्रन्दन, फिर चुप हो मुसकाना ।
धीरे से पलकें उठाना, 
मानो कलियों की पंखुड़ियों का खुलना ।।
फिर वो बाल-हठ, चपलता, 
शैशव से आगे बढ़ती उमर ।
फिर पढाई-लिखाई, कुछ करने की चाहत भरा वो जिगर ।।
अल्हड़ जवानी में पहला कदम,
किशोर मन की दुविधा भरी वो डगर ।
इस सफर में मिली जब वो इक हमसफ़र,
फिर प्रेम के पथ की वो अल्हड़ डगर ।।
फिर गृहस्थी की आई नई सी डगर,
हर डगर के मुहाने पर बस इक डगर ।
न उधर, न इधर, न कहीं फिर किधर,
न अगर, न मगर बस डगर ही डगर ।।
बस चलना है, चलते जाना है, रुकना नहीं ये कहती डगर ।
'शुभेश' ठहराव का तो कोई नहीं है जिकर ।।
हाँ इक शांति, अनंत शांति का है अवसर ।
मगर फिर बची ही कहाँ है डगर ।।