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बुधवार, 5 जनवरी 2022

आहार चेतना-मानवीय, धार्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष

8:15:00 am

 आहार चेतना-मानवीय, धार्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष

किसी भी मनुष्य का विचार उसके आहार पर निर्भर करता है। सात्विक आहार से शुद्ध विचार की उत्पति होती है। इस सम्बंध में श्रेष्ठजनों से सुनी एक लघुकथा आपके साथ साझा करना चाहता हूं। बहुत समय पहले की बात है, एक परम ज्ञानी तपस्वी ऋषि थे। वे बालपन से ही भगवत प्रेमी एवं सदाचारी थे। वे गांव-गांव घूम कर उपदेश दिया करते थे। एक बार गर्मी के समय वे किसी गांव से गुजर रहे थे। रेगिस्तानी इलाका था, इसलिए उन्हें शीघ्र ही प्यास सताने लगी। बहुत दूर चलने के बाद उन्हें एक कुंआ दिखाई पड़ा। वहां रखी बाल्टी से पानी निकाल कर उन्होंने अपनी प्यास बुझाई। प्यास बुझने के बाद उनके मन में एक विचार आया कि क्यों न मैं ये बाल्टी जल से भर कर अपने साथ रख लूं ताकि आगे यात्रा के दौरान मुझे प्यास लगे तो मुझे प्यास से तड़पना न पड़े। यह सोचकर  उन्होंने बाल्टी पानी से भरी और साथ लेकर आगे बढ़ चले। कुछ देर चलने के पश्चात मानों उनका ध्यान टूटा। वे सोचने लगे मुझ से कितना बड़ा पाप हो गया। मैंने कभी कोई बुरा कार्य नहीं किया और आज मैंने चोरी कर ली। वह भी ऐसे कुंए के बाल्टी की चोरी, जो न जाने कितने प्यासों को तृप्त करती थी। वे यह सोचने के लिए विवश हो गए कि इतना तप एवं भगवत ध्यान के पश्चात भी मेरे मन में ऐसे कुत्सित भाव कैसे उत्पन्न हुए। वे इसका पता लगाने पहुंचे। गांव वालों से उन्हें ज्ञात हुआ कि यह कुंआ एक चोर ने अपने आखिरी समय में पुण्य प्राप्ति होती चोरी के धन से खुदवाई थी। अब उन्हें समझ में आया कि चोरी का यह भाव उनके मन में कैसे उत्पन्न हुआ। कहा भी गया है- जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन।

तो शुद्ध विचार के लिए आहार सात्विक होना परम आवश्यक है। सात्विक आहार अर्थात शाकाहार। शाकाहार हमारे शरीर को अनेक व्याधियों से बचाता है। आज जब संपूर्ण विश्व हमारे गौरवशाली भारतीय संस्कृति पर मंथन कर उसे आत्मसात कर रही है। वहीं गौतम बुद्ध, महावीर जैन, कबीर, नानक जैसे महान पुरूषों की जननी इस वसुंधरा की संतति होकर भी हम पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण में लगे हुए हैं। अभी हाल ही में मैंने एक लेख पढ़ा था जिसमें बताया गया था कि इंग्लैण्ड एवम् अमेरिका में हाल के दशक में शाकाहार अपनाने वालों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। हमें इस विषय पर आत्ममंथन करने की आवश्यकता है कि जिस बौद्ध धर्म ने भारत के बाहर अनेक देशों में अपनी अमिट छाप छोड़ी है, वह अपने ही देश में उपेक्षित क्यों है। महावीर, कबीर, नानक के विचार यहीं अप्रासंगिक क्यों है।

मैं सर्वप्रथम शाकाहार पर बल देने हेतु इसके मानवीय पक्ष को आपके सामने प्रस्तुत करता हूं। दया, संयम, उचित-अनुचित का भेद ज्ञान यही सब गुण तो मनुष्य को मनुष्य बनाता है अन्यथा उसमें और पशु में क्या अंतर रह जाएगा। यही तो मानवता है। अब मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं। यदि आपके घर में कोई शुभ कार्य होता है अर्थात विवाह, जन्मोत्सव आदि। तो उन अवसरों पर भी मांस का सेवन किया जाता है। आप बताएं कि अपने पुत्र के जन्म की खुशी मनाने के लिए किसी और के पुत्र की बलि चढ़ाना उचित है? आप जिस जीव (बकरी, मुर्गी,मछली आदि) का मांस परोस रहे हैं वह भी तो किसी का पुत्र/पुत्री था। खुशी आपके घर आई इसमें उनका क्या दोष जिन्हें अपना संतान खोना पड़ा। तनिक विचार कर देखिए।

अब मैं शाकाहार के धार्मिक पक्ष से आपको अवगत कराना चाहूंगा। भगवान महावीर ने जीव-हत्या को अत्यंत निकृष्ट कार्य माना है एवम् शुद्ध-सात्विक आहार पर सर्वाधिक बल दिया है। उन्होंने तो शुद्ध आहार के साथ-साथ प्राणवायु की शुद्धता पर भी बल दिया है। आप जैन पंथ के मानने वालों को देखते होंगे कि वे मुंह पर कपड़ा बांधकर रखते हैं। वो इसलिए कि भूल से भी श्वास के माध्यम से कोई जीव, कीट-पतंग उनके मुंह में न चला जाए और वे उनकी हत्या के अपराधी न हो जाएं। परन्तु उनके विचार गृहस्थ एवम् सामाजिक व्यवस्था में प्रचलित नहीं हो पाये क्योंकि उनके बनाए नियम अधिकांशतः सन्यास व्यवस्था पर आधारित थे। वहीं गौतम बुद्ध ने इसे थोड़ा सरल बनाकर सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल बनाया। इस कारण वह उस समय बहुत प्रचलित हुआ। उन्होंने भी जीव-हत्या को सर्वथा निषेध बताया। दशावतार में गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का नौवां अवतार माना गया है।

वेदों में भी कहा गया है - ‘‘व्रीहिमत्तं यवमत्तमथोमाषम तिलम् एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दन्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च। ’’ अर्थात चावल खाओ ;व्रीहिम् अत्तं), जौ खाओ (यवम् अत्तं) और उड़द खाओ (अथो माषम्) और तिल खाओ (अथो तिलम्)। हे ऊपर नीचे के दांत (दन्तौ) तुम्हारे (वां) ये भाग (एष भागो) निहित है उत्तम फलादि के लिए (रत्नधेयाय)। किसी नर और मादा को (पितरं मातरं च) मत मारो (मा हिं सिष्टं)। 

संत कबीर साहब ने कहा है-


जस मांसु पशु की तस मांसु नर की, रूधिर-रूधिर एक सारा जी।

पशु की मांस भखै सब कोई, नरहिं न भखै सियारा जी।।

ब्रह्म कुलाल मेदिनी भरिया,  उपजि बिनसि कित गईया जी।

मांसु मछरिया तो पै खैये, जो खेतन मँह बोईया जी।।

माटी के करि देवी-देवा, काटि-काटि जीव देईया जी।

जो तोहरा है सांचा देवा, खेत चरत क्यों न लेईया जी।।

कहँहि कबीर सुनो हो संतो, राम-नाम नित लेईया जी।

जो किछु कियउ जिभ्या के स्वारथ, बदल पराया लेईया जी।। (शब्द-70)

शब्दार्थ :- जैसा पशु का मांस , वैसा ही मनुष्य का मांस है। दोनों में एक ही रक्त बहता है। मांसाहारी पशु मांस का भक्षण करते हैं और जो मनुष्य ऐसा करता है वो सियार के समान है। ईश्वर रूपी कुम्हार (ब्रह्म कुलाल) ने इतने बाग-बगीचे बनाये, फल-फूल बनाया वो सब उपज कर कहां जाते हैं। मांस-मछली खाना तो दोषपूर्ण (पै) है। उसे खाओ जो खेतों में बोआ जाता है। मिट्टी के देवी-देवता बनाकर उन्हें जीवित पशु की बलि चढ़ाते हो। यदि तुम्हारे देवता सचमुच बलि चाहते हैं तो वह खेतों में चरते हुए पशुओं को क्यों नहीं खा जाते। कबीर साहेब कहते हैं कि यह सब कर्म त्याग कर नित राम-नाम (भगवान नाम) का सुमिरन किया करो। अन्यथा तुम जो भी अपने जिह्वा के स्वाद के कारण यह कर रहे हो उसका बदला भी तुम्हें उसी तरह चुकाना पड़ेगा। 

एक दूसरी जगह संत कबीर कहते हैं - ‘‘पंडित एक अचरज बड़ होई। एक मरि मुये अन्न नहिं खाई।। एक मरि सीझै रसोई।। ’’ अर्थात हे पंडितों, ज्ञानियों एक बहुत बड़े अचरज(आश्चर्य) की बात सुनाता हूं। एक जीव के मरने पर तो तुम शोक मनाते हो और अन्न नहिं खाते हो वहीं दूसरी ओर एक जीव को मारकर रसोई बनाते हो।


अब शाकाहार के सम्बंध में कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर भी प्रकाश डालते हैं। हमारे शरीर की रचना कुछ इस प्रकार की है जिससे वह शाकाहारी प्राणियों के समूह में आता है। मांसाहारी जंतुओं में मांस को चीरने-फाड़ने के लिए बेहद नुकीले व पैने दांत रदनक (ब्ंदपदम) पाया जाता है। परंतु मनुष्यों में इसका अभाव होता है। समस्त मांसाहारी जीव अपनी जिह्वा से पानी पीते हैं। परंतु शाकाहारी जंतु पानी घूंट-घूंट कर पीते हैं और गटकते हैं। मनुष्य भी ऐसा ही करता है। आप यदि कहीं विक्षिप्त शव या कोई मांस का टुकड़ा इत्यादि देखते हैं तो सर्वप्रथम घृणा का भाव पैदा होता है। क्योंकि हमारा शरीर की बनावट शाकाहारी जंतु की है, इसलिए मस्तिष्क सम्बंधित तंत्रिका को घृणा का भाव प्रेषित करता है, जिससे हम विक्षिप्त शव या कोई मांस का टुकड़ा इत्यादि देखते ही मुंह फेर लेते है। यदि हमारा शरीर मांसाहारी प्रकृति का होता तो उसके लिए यह लालसा की वस्तु होती। परंतु ऐसा नहीं होता। 

छान्दोग्योपनिषद मे कहा गया है- ‘‘आहारशुद्ध होने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, अंतःकरण के शुद्ध हो जाने से भावना दृढ़ होती है और भावना की स्थिरता से ह्रद्य की समस्त गांठे खुल जाती है।’’


इस सम्पूर्ण आलेख का सार यह है कि अपनी आहार चेतना को जागृत कर हमें शाकाहार पर बल देना चाहिए। शाकाहार ही सर्वोत्तम आहार है।


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गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

हम आम जनता

6:43:00 pm
हम आम जनता

हम आम जनता – हम आम जनता
जो है सबसे  सस्‍ता – जो है सबसे सस्‍ता
चुनावी वादों में बिन मोल बिकते हैं
नई सरकार आने तक खुशफहमी में रहते हैं

हाय री आम जनता, सरकारें तो बदली
पर तेरी किस्‍मत, वो कहां बदली

अब आम भी कहां, अमरूद भी कहां
तेरी किस्‍मत में तो पपीता भी नहीं
तू आम जनता है – आम जनता
हां, तू मुर्दा तो नहीं, पर जिन्‍दा भी नहीं

ना मुझ पर भड़कने से क्‍या होगा
अरे जिन्‍दा हो तो जिन्‍दा दिखो
तुम्‍हें तलवार चलाने कौन कहता
बस कलम ही काफी है, कुछ तो लिखो

तुम लिखो कि ये तुम्‍हारा अधिकार है
जनता की जनता के लिए चुनी हुई सरकार है

लिखो कि हमारे ‘कर’ का क्‍या किया
विकास देश का हुआ कि अपना किया
जो चुनाव से पहले तो बेकार थे
कभी पैदल तो कभी साइकल सवार थे

तुम लिखो कि वो कैसे कार-ओ-कार हैं
बंगले खजानों से कैसे माल-ओ-माल हैं
लिखो विकास गजब का हुआ जनाब है
जो पी रहे वो खून है हमारा, ना शराब है

‘शुभेश’ तुम लिखो,
तुम्‍हारी लेखनी रंग लाएगी कभी
क्‍या पता, मुर्दों में भी जान आएगी कभी

हिन्दी दिवस

6:33:00 pm
हिन्दी दिवस

आज फिर हिन्दुस्तान में हिन्दी दिवस मनाएँगे।
साहब लोग अंग्रेजी सूट में आएंगे, हिंदी की गाथा गाएंगे।।
अधीनस्थों को अनुरोध नहीं रिक्वेस्ट करेंगे।
सब पत्रों के रिप्लाई हिंदी में देना, बस पखवाड़े भर कष्ट करो।
फिर करना अंग्रेजी वाली, मेरे ऊपर ट्रस्ट करो ।।
हमको भी उत्तर देना है, कुछ खानापूर्ति करना है।
साज-सज्जा में कमी नही हो, इस मद भी खर्चा करना है।।
हिंदी है भारत की बिंदी, सारे जग को दिखलाएंगे।
कमी नहीं कुछ करना तुम हम हिंदी दिवस मनाएंगे।।
हिंदुस्तान की किस्मत कैसी, हिंदी दिवस मनाई जाती।
पर घर-घर मे गुण कथित सभ्यों की भाषा अंग्रेजी की गाई जाती।।
वो अंग्रेजी जिसने वर्षों हम पर राज किया ।
झूठी चकाचौंध में पथभ्रष्ट समाज किया ।।
हमारे विकास, एकता, अखंडता की सबसे बड़ी बाधक अंग्रेजी की जो गुण गाते हैं।
शुभेश वही देखो आज कितने तन्मयता से हिन्दी दिवस मनाते हैं।।

रविवार, 5 अगस्त 2018

Happy Friendship Day

5:00:00 pm
Happy Friendship Day
happy-friendship-day

मित्रता दिवस की ढेरों बधाई
हॉं आप सबों को Happy Friendship Day भाई
पर आज के दौर में सच्चा मित्र कौन है
क्या वो जो मित्र के दु:खों पर भी मौन है
या वो जो मित्र बना स्वार्थ हेतु
ना जी मित्र तो होते परमार्थ हेतु
लो फिर भगवान को ही मित्र बना लो
और समस्त दु:खों से ​मुक्ति पा लो
हॉं ये सच है, भगवान सबके मित्र बन जाते हैं
परंतु क्या सभी भक्त सच्चे मित्र बन पाते हैं
वो सुदामा सी मित्रता जिसने कृष्ण की दरिद्रता अपने नाम कर ली
वो कृष्ण की मित्रता जिसने अपना सबकुछ सुदामा के नाम कर दी

भगवान ने पग—पग पर हमे मित्र दिया है
क्या आपने उसे महसूस किया है
जन्म लिया तो मित्र मॉं बन आई
क्या निज रक्त से और कोई सींचे है भाई
फिर पिता ​बनि सम्मुख आए
प्रथम गुरू जो प्रेम, स्नेह और अनुशासन का पाठ पढ़ाए
फिर लंगोट मण्डली और भाई—बहन की वो टोली
जिन संग हम सबने खेली आॅंख—मिचौली
अपनी ही धुन में वो मस्त मलंग सा
मस्ती से भरा, नहीं फिकर किसी का
फिर boyfriend-girlfriend वाली दोस्ती
दुनिया लगे दीवानों जैसी
फिर पति—पत्नी का मित्र बन आना
सुख—दु:ख जो सम करि जाना
फिर संतान घर खुशियां लाई
जिसने बचपन की याद दिलाई
तो 'शुभेश' पग—पग पर है मित्रता
मत करो किसी से शत्रुता

मंगलवार, 1 मई 2018

विकास

10:47:00 pm
विकास
देश तरक्की कर रहा है
हम विकसित हो रहे हैं
हमारे दादे-परदादे के ज़माने में, 
पक्की सड़कें भी नहीं थी
अब मेट्रो और बुलेट ट्रेन की बात होती है
पहले अधिकारी के सामने आने पर भी लोग भय खाते थे
कहीं डाँट पड़ जाए तो पतलून गीली हो जाती थी
अब तो लिखित कार्रवाई का असर भी नहीं होता
उनकी बधिर होने की क्षमता का भी विकास हुआ है, जूं तक नही रेंगती
पहले औरतें पर्दा करती थी, मर्द भी धाक करते थे
वो नारी सम्मान, मातृ-पितृ पूजन, वो संस्कार की बातें
वो पलक उठाये बिन बातें करना, पैर के अंगूठे से मिट्टी कुरेदना
वो अश्कों का कभी बाहर आना, कभी अंदर ही रह जाना
वो सब इक गुजरा दौर था
ये तो नया दौर है
तब प्रेम भी सर्वत्र था
मातृ-प्रेम, पितृ-प्रेम, भातृ-प्रेम, मित्र-प्रेम
प्रेयसी-प्रेम, पत्नी-प्रेम, पति-प्रेम
प्रेम भी एक संस्कार था
आज उसका भी विकास हो गया है
स्वार्थ से अटूट गठबंधन हो गया है
पहले नारी के अनेक रूपों में भी
माँ-बहन-बेटी नजर आते थे
परंतु आज दृष्टिकोण का भी विकास हो गया है
आज नारी के हर रूप में प्रेयसी और भोग्या ही नजर आती है
भई इंसानियत का विकास तो चरम सीमा तक पहुँच गया है
इससे अधिक विकास तो कोई माई का लाल कर भी नही सकता
हमने भेद-भाव की हर सीमा को हटा दिया है
जवान और बच्ची का भेद-भाव तक मिटा दिया है
हमने शोषित और शोषक का फर्क भी मिटा दिया है
विकास की परिभाषा में नया अध्याय जोड़ दिया है
शोषितों के साथ-साथ, शोषकों का भी पोषण करते हैं
बोलो 'शुभेश' क्या अब भी कहोगे की विकास नही हुआ और हम शोषण करते हैं।।


रविवार, 29 अप्रैल 2018

जीवन की डगर

10:33:00 am
जीवन की डगर
वो पहला क्रन्दन, फिर चुप हो मुसकाना ।
धीरे से पलकें उठाना, 
मानो कलियों की पंखुड़ियों का खुलना ।।
फिर वो बाल-हठ, चपलता, 
शैशव से आगे बढ़ती उमर ।
फिर पढाई-लिखाई, कुछ करने की चाहत भरा वो जिगर ।।
अल्हड़ जवानी में पहला कदम,
किशोर मन की दुविधा भरी वो डगर ।
इस सफर में मिली जब वो इक हमसफ़र,
फिर प्रेम के पथ की वो अल्हड़ डगर ।।
फिर गृहस्थी की आई नई सी डगर,
हर डगर के मुहाने पर बस इक डगर ।
न उधर, न इधर, न कहीं फिर किधर,
न अगर, न मगर बस डगर ही डगर ।।
बस चलना है, चलते जाना है, रुकना नहीं ये कहती डगर ।
'शुभेश' ठहराव का तो कोई नहीं है जिकर ।।
हाँ इक शांति, अनंत शांति का है अवसर ।
मगर फिर बची ही कहाँ है डगर ।।

सोमवार, 18 सितंबर 2017

समन्‍दर और पत्‍थ्‍ार

12:36:00 am
समन्‍दर और पत्‍थ्‍ार
समन्‍दर तीर पे आकर,
मिली पाषाण से जाकर
कि तुम पाषाण तुम जड़वत,
कि तुम नादान मैं अवगत ।।

जो गुजरे पास से होकर,
वही इक मारता ठोकर

कहीं आना नहीं जाना
मेरे ही रेत के भीतर,
है तुमको दफन हो जाना

मुझे देखो मैं बल खाती
ऊफनती हूं मचलती हूं,
लहरों पे गीत मैं गाती
गगन से झूमकर मिलती,
मगन मैं नाचती-फिरती
मेरे संग तू भी चल आकर,
उसे बोली तरस खाकर ।।

सुन कर के समन्‍दर की,
मदभरी बातें और ताने
पाषाण यूं बोला,
तरस मत खा तू मुझपर
और न दे कोई मुझे ताने
जगत में मैं ही, रहा शाश्‍वत
चिरंतन काल से अब तक ।।

मैं ही चक्‍की हूं जो,
पीसकर तुम्‍हारा पेट हूं भरता
खुद तो क्षीण होता हूं,
मुंह से ऊफ भी न करता ।।

अगर तुम पूजते मुझको
मैं शालिग्राम होता हूं
अगर तुम चाहते मुझको
मकबरे-ताज होता हूं ।।

अगर तुम जौहरी हो, मुझको तराशो
फिर हीरा हूं, किस्‍मत धनी पत्‍थर
अगर तुम ठोकरें मारो
फिर पत्‍थर हूं, बस पत्‍थर ।।

यहां पर नारियां अबला बनी
प्रताडि़त होती है
और बेटियां तो जन्‍म से
पहले ही मरती हैं ।।

दुर्गा, सरस्‍वती, लक्ष्‍मी का
गुणगान होता है
यहां पाषाण मुर्तियों का ही
सम्‍मान होता है...।।

(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)


रविवार, 19 फ़रवरी 2017

मानवीय संवेदनहीनता की पराकाष्ठा

1:13:00 am
मानवीय संवेदनहीनता की पराकाष्ठा

अखबार के प्रथम पृष्ठ पर छपे खबर को पढ़कर स्तब्ध रह गया। आज लोगों की मानवीय संवेदनाएं इस स्तर तक खत्म हो चुकी है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कोलकाता के महानगरीय परिवेश और भाग—दौड़ भरी जिन्दगी के बीच एक 72 वर्षीय वृद्धा भीड़—भाड़ वाले पार्क में, जो कि उसके घर के सामने थी, में आत्मदाह कर लेती है और वहां मौजूद सारे लोग तमाशबीन बने देखते रह जाते हैं। किसी ने भी उसे बचाने का प्रयास नहीं किया। यह बहुत ही भयावह है। 
     बंगभूमि की राजधानी कोलकाता हमेशा से बुद्धिजीवियों का केन्द्र रही है। यहां से अनेक ऐसे महान समाज सुधारक उभरकर आए हैं जिन्होंने समाज को एक नई दिशा दी है। उसी कोलकाता में कभी ये दिन देखना पड़ेगा, यह कल्पना से परे था।
     आज हमारी संवेदनाएं फेसबुक और ट्वीटर तक सिमट कर रह गयी है। लोगों की सोच को मोबाईल और इन्टरनेट क्रांति ने कुंठित कर दिया है। आस—पास होने वाले घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने, उसे रोकने के लिए लोगों के पास वक्त नहीं है। डिजिटल क्रांति ने लोगों के बीच होने वाले सीधे सम्वाद/सम्पर्क को ह्वाट्सअप, फेसबुक और ट्वीटर तक सीमित कर दिया है। इसके दूरगामी प्रभाव अत्यंत भयावह होने वाले हैं। क्या आप ऐसे समाज की परिकल्पना कर सकते हैं, जिसमें समाज के किसी सदस्य को दूसरे से कोई सरोकार न हो, कदापि नहीं। आज हमें खासकर युवा वर्ग को आगे बढ़कर समाज को इस भयावह परिस्थिति से बचाना होगा। हम प्रकृति के बनाये सबसे बुद्धिमान व सुंदर रचना हैं। सामाजिक व्यवस्था का आधार ही उसके सदस्यों के बीच आपसी सामंजस्य और तालमेल है। यदि यह ही न रहा तो सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा ही समाप्त हो जाएगी।
     एक सजग व अच्छे सामाजिक सदस्य होने के नाते सबों का कर्तव्य है कि उपरोक्त घटना की पुनरावृति कदापि न हो। यथासम्भव यदि किसी एक भी व्यक्ति ने उस वृद्धा को बचाने का प्रयास किया होता तो वह शायद आज हमारे बीच होती। वह कोई भी हो सकती है, केवल इसलिए मूकदर्शक बने रहना कि वह हमारी परिचित नहीं, यह तो घोर अमानवीयता का परिचायक है।
     कृपया सोच बदलें और बेहतर समाज के निर्माण में सहयोग दें।
                                           ——— शुभेश