अब तो संभलो
सुन रे मानव अब तो संभलो, मत प्रकृति से खिलवाड़ करो।
तुम हो कर्ता की उत्तम रचना, मत वनों का संहार करो।।
जिस कर्ता ने तुझे संवारा,
लोभ के वश हो उसे उजारा।
जीवनदायिनी पेड़ उखारे,
छिन्न—भिन्न कर दिये नजारे।।
जो तेरा है जीवन—रक्षक, जिस वायु से होते पोषित।
बड़े—बड़े उद्योग लगाकर, उस वायु को किया प्रदुषित।।
पर्वत को भी नहीं है छोड़ा,
यहां वहां हर जगह से तोड़ा।
वन उजाड़े और नदी को बांधा,
प्रकृति की हर सीमा को लांघा।।
जिसने ये संसार बनाया,
जीवन—ज्योति धरा पर लाया।
कृत्य भला ये कैसे सहता,
मूक—बधिर सा कब तक रहता।।
अति दोहन से जल स्रोत सुखाये,
बूंद—बूंद को जी तरसाये।
कहीं बाढ़—रूपी आयी विपदा,
और कहीं है बादल फटता।।
कहीं बाढ़ है, कहीं सूखाड़,
चहूं ओर मचा है हाहाकार।
चेत—चेत अब भी 'शुभेश',
बस पेड़ लगा और पेड़ लगा, वरन् नहीं बचेगा कुछ भी शेष।।
''प्रकृति के अंधाधूंध दोहन की यह परिणति है।
पेड़ बचाओ, हरियाली लाओ, तभी हमारी होगी सद्गति है।''
............शुभेश
(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)
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