मानवीय संवेदनहीनता की पराकाष्ठा
अखबार के प्रथम पृष्ठ पर छपे खबर को पढ़कर स्तब्ध रह गया। आज लोगों की मानवीय संवेदनाएं इस स्तर तक खत्म हो चुकी है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कोलकाता के महानगरीय परिवेश और भाग—दौड़ भरी जिन्दगी के बीच एक 72 वर्षीय वृद्धा भीड़—भाड़ वाले पार्क में, जो कि उसके घर के सामने थी, में आत्मदाह कर लेती है और वहां मौजूद सारे लोग तमाशबीन बने देखते रह जाते हैं। किसी ने भी उसे बचाने का प्रयास नहीं किया। यह बहुत ही भयावह है।
बंगभूमि की राजधानी कोलकाता हमेशा से बुद्धिजीवियों का केन्द्र रही है। यहां से अनेक ऐसे महान समाज सुधारक उभरकर आए हैं जिन्होंने समाज को एक नई दिशा दी है। उसी कोलकाता में कभी ये दिन देखना पड़ेगा, यह कल्पना से परे था।
आज हमारी संवेदनाएं फेसबुक और ट्वीटर तक सिमट कर रह गयी है। लोगों की सोच को मोबाईल और इन्टरनेट क्रांति ने कुंठित कर दिया है। आस—पास होने वाले घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने, उसे रोकने के लिए लोगों के पास वक्त नहीं है। डिजिटल क्रांति ने लोगों के बीच होने वाले सीधे सम्वाद/सम्पर्क को ह्वाट्सअप, फेसबुक और ट्वीटर तक सीमित कर दिया है। इसके दूरगामी प्रभाव अत्यंत भयावह होने वाले हैं। क्या आप ऐसे समाज की परिकल्पना कर सकते हैं, जिसमें समाज के किसी सदस्य को दूसरे से कोई सरोकार न हो, कदापि नहीं। आज हमें खासकर युवा वर्ग को आगे बढ़कर समाज को इस भयावह परिस्थिति से बचाना होगा। हम प्रकृति के बनाये सबसे बुद्धिमान व सुंदर रचना हैं। सामाजिक व्यवस्था का आधार ही उसके सदस्यों के बीच आपसी सामंजस्य और तालमेल है। यदि यह ही न रहा तो सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा ही समाप्त हो जाएगी।
एक सजग व अच्छे सामाजिक सदस्य होने के नाते सबों का कर्तव्य है कि उपरोक्त घटना की पुनरावृति कदापि न हो। यथासम्भव यदि किसी एक भी व्यक्ति ने उस वृद्धा को बचाने का प्रयास किया होता तो वह शायद आज हमारे बीच होती। वह कोई भी हो सकती है, केवल इसलिए मूकदर्शक बने रहना कि वह हमारी परिचित नहीं, यह तो घोर अमानवीयता का परिचायक है।
कृपया सोच बदलें और बेहतर समाज के निर्माण में सहयोग दें।
——— शुभेश
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