रविवार, 24 नवंबर 2019

सुख—दु:ख दोऊ सम करि जानो

11:36:00 am
सुख—दु:ख दोऊ सम करि जानो


sukh-dukh

     'सुख' इसकी परिभाषा भिन्न—भिन्न हो सकती है। भूखे के लिए भोजन प्राप्ति, दरिद्र के लिए धन प्राप्ति, नि:संतान के लिए संतान प्राप्ति, धूप में खड़े व्यक्ति के लिए छांव की प्राप्ति वहीं ठंढ से ठिठुर रहे व्यक्ति के लिए धूप की प्राप्ति सुख हो सकती है।
    अर्थात विभिन्न अवस्थाओं में सुख की परिभाषा अलग—अलग है। तो क्या उपरोक्त वर्णित सुख वास्तविक सुख हैं अर्थात स्थायी हैं। भूखे को यदि भोजन की प्राप्ति हो जाए तो भूख के शांत होने तक ही वह भोजन उसके लिए सुखकारी है। यही स्थिति अन्य के साथ भी है। वास्तविक सुख तो शांति की प्राप्ति है। शांति से परमानंद की प्राप्ति होती है और वही सच्चा सुख हो सकता है।
     तो शांति कैसे सम्भव है, इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है। शांति की प्राप्ति में 'संतोष' अत्यंत सहायक होता है। मैं बचपन से ही सदैव प्रार्थना किया करता था—       
     हे परम पूज्य गुरूदेव जू,
                         कीजै कृपा रहे शांत मन ।
     नहिं चाहिए मुझे और कुछ,
                         प्रभो दीजिए मुझे 'संतोष' धन ।।

    'संतुष्टि के भाव' मन को शांत करते हैं। इसमें भगवत सुमिरन बहुत सहायक होता है। भगवत भजन से अंत:करण शुद्ध होता है और चित्त शांत होता है जो कठिन—से—कठिन परिस्थितियों में भी मन:स्थिति को मजबूती प्रदान करता है और विपरीत समय से उबरने की शक्ति प्रदान करता है।

     श्रीरामचरितमानस के सुंदरकाण्ड में श्रीहनुमान जी कहते हैं—
          कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई ।
          जब तव सुमिरन भजन न होई ।।
     अर्थात बिपति (दु:ख) की स्थिति वो है जब आपका (प्रभु का) सुमिरन भजन नहीं हो।

     संत कबीर साहेब कहते हैं—
          दु:ख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
          ज्यों सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे होय ।।
     अर्थात, दु:ख की अवस्था में भगवान का भजन तो सभी करते हैं, परंतु भगवान जब कृपा करके दु:ख दूर कर देते हैं तो फिर उन्हें भूल जाते हैं। यदि सुख के समय में, नियमित रूपेण भगवत सुमिरन की जाए तो दु:ख क्यों कर हो।

     देखा जाए तो सुख और दु:ख दोनों मात्र एक अवस्था है। इसे एक समान भाव से जो लेता है वही परम शांति को प्राप्त कर सकता है। अर्थात जब सुख की प्राप्ति हो तो अभिमान नहीं करना चाहिए और इसे भगवान की कृपा दृष्टि मानकर सहर्ष स्वीकार करनी चाहिए। उसी प्रकार दु:ख की स्थिति में भगवान की दी हुई परीक्षा मानकर इसमें सफल होने के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए।
     गुरूनानक साहिब कहते हैं—
          सुख कउ मांगै सभु को, दु:खु न मांगै कोइ ।
          सुखै कइ दु:खु अगला, मनमुखि बूझ न होइ ।
          सुख दु:ख सम करि जाणी अहि सबदि भेदि सुख होइ ।।

     सुख—दु:ख से परे होकर भगवत भजन करने से आत्मिक शांति की प्राप्ति होती है और चित्त भगवान के समीप होता है। गुरूनानक साहिब का यह भजन इसको और स्पष्ट करता है—
          साधो मन का मान तिआगो ।
          काम क्रोध संगत दुरजन की, ताते अहनिस भागो ।।
          सुख दु:ख दोनों सम करि जानै, और मान अपमाना ।
          हरष सोग ते रहे अतीता, तिन जग तत्व पछाना ।।
          असतुति, निंदा दोऊ त्यागे, खोजै पद निरबाना ।
          जन 'नानक' यह खेल ​कठिन है, कोऊ गुरमुख जाना ।।
         
     अर्थात सुख—दु:ख को समान जानते हुए उसमें बिन विचलित होते हुए जो भगवत सुमिरन करते हैं उन्हें ही परमानंद की प्राप्ति होती है।

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

शिक्षक दिवस पर सभी गुरूजनों को कोटि—कोटि वंदन

8:08:00 am
teachers-day

आज शिक्षक दिवस है अर्थात अपने गुरूजनों को स्मरण करने का पावन दिवस। यूं तो कभी भी उन्हें विस्मृत करने का प्रश्न ही नहीं उठता, अपितु एक दिन ऐसा हमें मिला है जिस दिन हमें उन्हें स्मरण कर उनके सुकृत्यों, दीक्षाओं से सीख ले सकते हैं, जीवन के बाधाओं से लड़ने हेतु पुन: प्रयासरत हो सकते हैं।

मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे भी अपने जीवन में कदम—कदम पर ऐसे गुरूजनों का अनुग्रह प्राप्त हुआ जिन्होंने मुझे एक नई दिशा दी। सर्वप्रथम गुरू स्वाभाविक रूप से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उनके माता—पिता होते हैं। मेरे जीवन में भी मेरी मॉं और पापा ने प्रथम गुरू की उल्लेखनीय भूमिका निभाई। आज मेरे विचारों में थोड़े—बहुत जो भी सत् गुण रूपी भाव विराजमान हैं, वह उनके ही सीखों का परिणाम है। गणित के कठिन—से—कठिन सूत्र हों अथवा संस्कृत के धातु रूपों को उनको सरलतम रूप में समझा कर कंठाग्र कराना सब पापा के शिक्षाओं का ही परिणाम है। बचपन में एक बार मुझे घर से पैसे निकालकर चॉकलेट—बिस्किट खाने की आदत लग गयी थी। पापा जानकर अत्यंत व्यथित हुए, परंतु उनके समझाने के तरीके ने न मेरी आदत छुड़ाई बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से गहरा प्रभाव भी डाला। हाथ उठाने के स्थान पर उनका आंखें दिखाना अथवा आंखें फेर लेना ही काफी होता है। कहा भी गया है: मातु—पिता ही प्रथम गुरू होते हैं। उन्हें सप्रेम साहेब—बन्दगी।

इसके बाद प्राथमिक विद्यालय के जगन्नाथ सर, रामरेखा सर, पाण्डेय सर हों या कुमुद चाची। उन्होंने जीवन पथ पर आगे बढने में जो ज्ञान रूपी बीज बोये उनके लिए हृदय की गहराईयों से आभार और वंदन। फिर माध्यमिक विद्यालय के गयासुद्दीन सर, रवीन्द्र सर, देवेन्द्र सर, नारायण सर, कुंवर सर और हरिवंश सर ने इन बीजों को अंकुरित करने के लिए ज्ञान रूपी जल से मुझे भली—भांति सींचा, उनको सादर वंदन। उच्च माध्यमिक विद्यालय में शारदानन्द सर, अनिरूद्ध सर,  निराला सर, बलदेव सर आदि अनेकों शिक्षकों ने मुझ जैसे अनेकों शिक्षार्थियों के ज्ञान के पौधे को साकार रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनकों आत्मिक आभार।
आदरणीय दिलीप सर और दिनेश सर ने मेरे शैक्षणिक जीवन को प्रगति पथ पर गतिशील करने में  बहुत सहायता की उनको सादर प्रणाम। 

आज भी मुझे याद है, जब मेरी बोर्ड परीक्षा का परिणाम पेण्डिंग लिस्ट में आया था, मेरा रो—रोकर बुरा हाल था। उस समय आदरणीय दिनेश सर ने आगे बढने की प्रेरणा देते हुए मुझे हिम्मत दिया था जिसे मैं कभी भी नहीं विस्मृत कर सकता। सदैव की तरह संकोची प्रवृति का होने के कारण मैं कभी भी अपनी भावनाओं को उनके सम्मुख अभिव्यक्त न कर पाया।  कभी भी अनजाने में मुझसे हुई भूल के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं। उन्हें हार्दिक वंदन।

मुझे प्रतियोगी जीवन में सफल बनाने हेतु ज्ञान के नव अंकुर डालने वाले आदरणीय संतोष सर का उल्लेख किये बिना मेरा निवेदन अधूरा ही रहेगा। उन्होंने अपने सरल—स्वाभाविक तरीकों से समझाकर मुझे प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने में सहायता प्रदान की। उन्हें हार्दिक वंदन।

मेरे छोटे—बड़े भाई, मित्र, जीवन संगिनी और मेरी बेटी से भी मुझे बहुत—कुछ सीखने को मिला। इसलिए ये भी आदरणीय हैं और इस अवसर पर मैं इन्हें भी नमन करता हूं। कार्यालयीन जीवन में आदरणीय मिथिलेश सर, बलविन्‍दर सर, देवेन्‍द्र सर, देवराज सर, वीणा मैडम, आदि अनेकों श्रेष्‍ठजनों ने गुरू की भूमिका निभाई। आज के दिन मैं उन्‍हें भी नमन करता हूं।

मेरे धार्मिक जीवन को दृढ कर नई दिशा देने हेतु मुझ पर अत्यंत कृपालु करने वाले प्रात: स्मरणीय परम पूज्य गुरूदेव मालिक बाबा ने मुझे दीक्षा देकर मेरे अनेकों जन्मों के सुकृत्यों का सुफल दिया और जीवनमार्ग में आने वाली बाधाओं के निदान हेतु मार्ग खोल दिये। उनको कोटि—कोटि वंदन। सप्रेम साहेब—बन्दगी। मैं सदैव उनका ऋणी रहूंगा।

आप सभी गुरूजनों को कोटि—कोटि वंदन।

गुरू: ब्रह्मा गुरू: विष्णु, गुरू: देवो महेश्वर: ।
गुरू: साक्षात् परम् ब्रह्म:, तस्मै श्री गुरूवे नम: ।।
.............................................................शुभेश

रविवार, 5 मई 2019

परम पूज्‍य सद्गुरूदेव श्रीयुत् बौआ साहब जू का पावन अवतरण दिवस

8:54:00 am
परम पूज्य सद्गुरूदेव श्रीयुत् बौआ साहब जू के पावन अवतरण दिवस पर सबों को सप्रेम साहेब बन्‍दगी
Baua-sahab-बौआ-साहब

प्रात: स्मरणीय परम पूज्य सद्गुरूदेव श्रीयुत् बौआ साहब जू के पावन अवतरण दिवस पर उनके श्री चरणों में साहेब बन्दगी —3.

 आज ही के दिन वर्ष 1926 में सद्गुरूदेव जू ने मिथिला क्षेत्र में दरभंगा शहर से लगभग 28 किलोमीटर दूर भरवाड़ा ग्राम में परम पूज्य श्री गिरिवर लाल जू जो मिर्चाई लाल के नाम से विख्यात थे, के घर जन्म लिया था।
मिथिला क्षेत्र में संत कबीर साहेब के सदुपदेशों को जन—जन तक पहुंचाने का पावन कार्य उन्होंने हीं प्रारम्भ किया था। श्रीयुत् बौआ साहब जू ने उनके इस पावन कार्य को सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रसारित करने और दीन—दु:खियों की सेवा करने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।

उनका आकर्षक व्यक्तित्व व अंतरतम को शीतल कर देने वाली तेजस्वी वाणी सभी का मन मोह लेती थी। अनायास ही सभी उनकी ओर खिंचे चले आते थे। अनुज श्री शिवेश की रचना उनके व्यक्तित्व का सजीव चित्रण आंखों के सामने प्रस्तुत करती है —

अजब निराले सतगुरू मेरे, चलो दर्शन कर आते हैं ।
ज्ञान—प्रेम की अविरल धारा, चलकर खूब नहाते हैं ।।
अजब निराले सतगुरू .................

भव्य ललाट और बाल सुनहरे, देख मुग्ध हो जाते हैं ।
सतगुरू की मूरत को लखकर, मिलकर शीश झुकाते हैं ।।
अजब निराले सतगुरू ................

हम सब मिलकर ऐसे गुरू की, नित दिन वन्दन करते हैं ।
वचनामृत सुनकर हम उनके, धन्य स्वयं को करते हैं ।।
अजब निराले सतगुरू ................
(शिवेश)

सचमुच हम उनके वचनामृत सुनकर स्वयं को धन्य मानते थे। आज भी उनके शब्दों की प्रतिध्वनि कानों में गूंजती रहती है। अनकों जन्मों के सुकृत्य का ही फल होगा कि इस जन्म में उनसे साक्षात्कार हुआ। परम प्रभु की कृपा का क्या बखान करूं उन्होंने न केवल उनके विशाल परिवार का अंग बनाया, साथ ही उनके शिष्य बनने का सौभाग्य भी प्रदान किया।

बचपन में स्कूल से वापसी में कई बार सीधे उनकी कुटिया पर चला आता था। उस समय हमारे बाल सुलभ प्रश्नोें के उत्तर देते हुए भी वो कई गूढ बातों को बड़ी सहजता से समझा देते थे। कुटिया में सद्गुरू कबीर साहेब की एक बड़ी तस्वीर रखी थी। सायंकाल में प्रार्थना के समय उस कमरे में बस एक दीप जलता रहता था। कोई फूल माला, प्रसाद, आरती कुछ भी नहीं। सब कोई प्रार्थना करते और अंत में एक—दूसरे को साहेब बन्दगी करते। कबीर साहेब की तस्वीर की पूजा न कर हमलोग बस प्रार्थना करते तब यह बात मेरे सामान्य दिमाग में नहीं बैठती थी। सामान्यतया मंदिरों में तस्वीर की ही पूजा होती थी। आस—पास हर जगह यही देखता परंतु कुटिया में ऐसा नहीं था। ऐसे ही एक दिन स्कूल से जब वापसी में कुटिया पहुंचा तो अपनी जिज्ञासा जाहिर कर दी कि इस तस्वीर में भगवान नहीं हैं क्या। बाबा ने समझाते हुए कहा तस्वीर में हीं क्यों हर जगह भगवान हैं। आपमें हममें निर्जीव सजीव सबमें भगवान हैं। फिर तस्वीर की पूजा क्यों नहीं करते, जैसे और मंदिरों में होता है। बाबा मुस्कुराते हुए उत्तर देते हैं कि जब हर जगह भगवान हैं तो केवल इस तस्वीर की ही पूजा क्यों। संसार का ऐसा कोई कण और क्षण नहीं जो भगवान से अलग हो। सर्वत्र भगवान विराजते हैं। आवश्यकता है तो उनको याद करने की पुकारने की। पूजा—पाठ और आडम्बर तो स्वयं को दिखाने के लिए है। उससे आप खुद को समझा सकते हैं कि आप भगवान को याद करते हैं। भगवान को समझाने के लिए तो हृदय की गहराईयों से पुकार निकलनी चाहिए। जब आप सच्चे मन से ध्यान करेंगे तब जहां हैं वहीं भगवान सम्मुख होंगे। इसलिए नियमित रूप से मन लगाकर प्रार्थना तो करनी ही चाहिए, बाह्य आडम्बरों की कोई आवश्यकता नहीं।

मैंने अभी अभी विज्ञान में पढा था कि जगदीश चन्द्र बसु जी ने खोज निकाला था कि पेड़—पौधों में भी जान होता है। तबसे हमारे साथियों ने जो कि सामिष भोजी थे, हमें चिढाना शुरू कर दिया था कि तुम तो नाम के शाकाहारी हो शाक—सब्जी में भी जान होता है अब क्या खाओगे। मैं परेशान, पापा से पूछा। पापा ने समझाया कि शाकाहारी मतलब शाक का आहार करने वाला अर्थात जो शाक सब्जी खाता हो। इसलिए हम सब शाकाहारी हैं। परंतु मैं पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुआ तो पापा बोले मालिक बाबा से ही पूछना वो ही समझाएंगे। फिर मैं दादी के साथ कुटिया पर पहुंचा। बाबा को बंदगी बजाने के बाद अपनी समस्या बतायी कि सब दोस्त हमको परेशान करता है। किताब में भी लिखा है और सर भी पढाये हैं, मैं उन्हें क्या जवाब दूं।

बाबा पहले मुस्कुराये फिर बोले कि बोलने वाले ऐसे ही बोलते हैं आप उनकी बातों पर मत जाओ। जो मांसाहार का त्याग नहीं कर सकते वो अनेक कुतर्क करेंगे, वे आप जैसा नहीं बन सकते इसलिए आपको चिढाते हैं, आप ध्यान मत दो। 
मैं बोला— नहीं बाबा मुझे तो जवाब देना है। आप बताइये कि जब पेड़ पौधों में भी जान है तो हमलोग क्या खाएंगे।
बाबा बोले आप नहीं मानेंगे, तो सुनिये— भगवान ने सभी जीवों के लिए आहार निश्चित किया है और उसी के अनुरूप उसके शरीर का निर्माण किया है। हम सभी मनुष्य स्वभाव और शरीर से शाकाहारी हैं। मांसाहारी जंतुओं में एक विशेष दांत रदनक जो चीड़ने—फाड़ने का काम करता है वो पाया जाता है। मनुष्यों में यह नहीं होता। अर्थात हम सब शाकाहारी हैं। मनुष्य केवल अपनी जिह्वा के कारण मांसाहारी है और जीव हत्या का महापाप करता है। जहां तक शाक सब्जी में जान होने की बात है तो शाक सब्जी में जीवात्मा का स्वरूप सुसुप्तावस्था में रहता है। इसका स्वरूप ही ऐसा बनाया गया है।
कबीर साहेब कहते हैं कि दया राखि धरम को पाले, जग से रहे उदासी। अपना सा जी सबका जाने ताहि मिले अविनाशी।। अर्थात जो अपने समान ही सबको समझता है उसे ही ईश्वर मिलते हैं। अब आप स्वयं सोचिए कि जिनके दिल में दया होगी वह किसी की हत्या करेगा। जो अपने पुत्र के समान और जीव जंतुओं के पुत्रों को समझेगा तो जीवहत्या ही नहीं करेगा।

मैं परम पुरूष परमात्मा का हृदय की गहराईयों से आभार प्रकट करता हूं कि उन्होंने हमें परम पूज्य सद्गुरूदेव जू से मिलवाया। उनकी कृपा दृष्टि का क्या कहना। एक छोटा सा सजीव चित्रण प्रस्तुत करता हूं— पापा एक बार अत्यधिक अस्वस्थ हो गए। आंत में सूजन होने की शिकायत के कारण उन्हें दरभंगा में नर्सिंग होम में भर्ती होना पड़ा। बाबा उस समय सुबह—सुबह नर्सिंग होम में पापा से मिलने आए। उस समय पापा बेड पर ही दीवार के सहारे बैठे थे। उन्हें उठने—बैठने में दिक्कत हो रही थी। बाबा के आने पर हम सबने तो उनकी बंदगी कर ली, परंतु पापा उठ नहीं पा रहे थे। उनकी आंखों से आंसू बह निकले। उस समय कृपानिधान सद्गुरूदेव की असीम अनुकम्पा देखने को मिली। वो खड़े हो गए और अपना दायां पैर उठाकर पापा के हाथ के पास बढा दिया और पापा ने सहजता से बन्दगी कर ली। इस असीम अनुकम्पा से अभिभूत हो हम सबकी आंखों से अश्रुधार बह निकले।

मालिक बाबा की कृपा दृष्टि ही है कि इतनी कम उम्र में ही मेरी पुत्री सुश्री शुचि जिसे मैंने एक बार कभी समझाया था कि सब जगह भगवान होते हैं और सबमें भगवान होते हैं। इस बात को उसने इतनी गहराई से लिया कि सबको कहती फिरती है पता है तुममें भी भगवान है, हम में भी भगवान है वो सबकुछ देखते हैं। जब कुछ दिक्कत होता है उसे, बस हाथ जोड़कर भगवान को याद करने लगती है।
मालिक बाबा के सदुपदेशों को सदैव सामने रखकर मैं आचरण करने की कोशिश करता हूं और इस भवसागर में अपनी नैया को पार लगाने का प्रयास करता हूं। कभी कभी सोचता हूं कि मालिक बाबा का अनुग्रह नहीं प्राप्त हुआ होता तो पता नहीं इस भवसागर में कितनी बार अंधकूपों में भटक गया होता। परम पुरूष परमात्मा को कोटि—कोटि धन्यवाद।

नमन तुम्हें शत बार है गुरूवर, नमन तुम्हें शत बार है ।
पाप—पुण्य का भेद कराया,
दया धरम का मार्ग दिखाया ।
स्नेह भरा जो हाथ फिराया, कोटि—कोटि आभार है ।।
नमन तुम्हें शत बार है......................
सत की नाव में मुझे बिठाया,
नाम रूपी पतवार थमाया ।
निराकार का भेद बताया, वो रूप तेरा सा​कार है ।।
नमन तुम्हें शत बार है......................
क्रोध—लोभ को पास न लाना,
माया मोह से बच के रहना ।
माया ठगिनी बड़ी सयानी, तूने किया खबरदार है ।।
नमन तुम्हें शत बार है......................
हम अज्ञानी इंद्रिय वश में,
बंधते जाते भव बंधन में ।
तूने ज्ञान की ज्योति जलाकर,
तन और मन दोनों धुलवाकर ।
आतम—राम का मिलन कराकर, किया बड़ा उपकार है ।।
नमन तुम्हें शत बार है.....................
शुभेश विनवत बारम्बार है...................
नमन तुम्हें शत बार है.....................

साहेब बन्दगी!! साहेब बन्दगी!! साहेब बन्दगी!!