सोमवार, 13 जुलाई 2015

हे प्रभु कैसी ये लीला

हे प्रभु कैसी ये लीला
हे प्रभु ये कैसी है लीला, कृपा कर मुझे बताएं ।
करम—धरम सब हाथ में तेरे, फिर क्यों हम घबराएं ।।
जीव खिलौना तेरे हाथ का, जैसे चाहो नचाते ।
तुम ही कर्ता, तुम ही विधाता, जहां मर्जी ले जाते ।।
प्रभु ईच्छा से ही हम हंसते, प्रभु ईच्छा से रोते ।
प्रभु ईच्छा बिन तृण नहिं डोले, फिर पापकर्म क्यों होते ।।
विद्वजनों की बात सुनूं तो होता अचरज भारी ।
सत्कर्म करूं तो प्रभु प्रेरित हैं, दुष्कर्म में गलती हमारी ।।
जब सबकुछ तेरी ही ईच्छा, फिर पक्षपात ये कैसा ।
किसी को राम बना देते तुम, किसी को रावण जैसा ।।
कोई गाँधी बन जाता तो, कोई निर्दयी गोरा ।
कैसा खेल तुम्हारा है प्रभु, समझ न आए थोड़ा ।।
क्यों ये नहीं हो सकता प्रभु की, कहीं पाप नहिं होते ।
कोई न रहता रावण जग में, सभी राम हीं होते ।।
                                                          ~~~ शुभेश

(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)

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