सोमवार, 18 सितंबर 2017

समन्‍दर और पत्‍थ्‍ार

12:36:00 am
समन्‍दर और पत्‍थ्‍ार
समन्‍दर तीर पे आकर,
मिली पाषाण से जाकर
कि तुम पाषाण तुम जड़वत,
कि तुम नादान मैं अवगत ।।

जो गुजरे पास से होकर,
वही इक मारता ठोकर

कहीं आना नहीं जाना
मेरे ही रेत के भीतर,
है तुमको दफन हो जाना

मुझे देखो मैं बल खाती
ऊफनती हूं मचलती हूं,
लहरों पे गीत मैं गाती
गगन से झूमकर मिलती,
मगन मैं नाचती-फिरती
मेरे संग तू भी चल आकर,
उसे बोली तरस खाकर ।।

सुन कर के समन्‍दर की,
मदभरी बातें और ताने
पाषाण यूं बोला,
तरस मत खा तू मुझपर
और न दे कोई मुझे ताने
जगत में मैं ही, रहा शाश्‍वत
चिरंतन काल से अब तक ।।

मैं ही चक्‍की हूं जो,
पीसकर तुम्‍हारा पेट हूं भरता
खुद तो क्षीण होता हूं,
मुंह से ऊफ भी न करता ।।

अगर तुम पूजते मुझको
मैं शालिग्राम होता हूं
अगर तुम चाहते मुझको
मकबरे-ताज होता हूं ।।

अगर तुम जौहरी हो, मुझको तराशो
फिर हीरा हूं, किस्‍मत धनी पत्‍थर
अगर तुम ठोकरें मारो
फिर पत्‍थर हूं, बस पत्‍थर ।।

यहां पर नारियां अबला बनी
प्रताडि़त होती है
और बेटियां तो जन्‍म से
पहले ही मरती हैं ।।

दुर्गा, सरस्‍वती, लक्ष्‍मी का
गुणगान होता है
यहां पाषाण मुर्तियों का ही
सम्‍मान होता है...।।

(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)


सरकारी बनाम निजी प्रतिष्‍ठान

12:32:00 am
सरकारी बनाम निजी प्रतिष्‍ठान
‘सहज’, ‘सदय’ दोऊ मित्र परस्‍पर
विद्या के धनी, गुणी, प्रवीण धुरंधर
अल्‍पकाल स‍ब विद्या पाई
सरकारी सेवक बनने हेतु किस्‍मत आजमाई

‘सहज’ नाम अनुरूप सहजता से
सरकारी सेवक बन जाते हैं
परंतु ‘सदय’ अनेकों प्रयास के बावजूद
किस्‍मत को कोसते रह जाते हैं

दो वर्ष के पश्‍चात आखिरकार
एक प्रतिष्ठित निजी संस्‍थान ने
इनकी काबिलियत को पहचाना
सेवा का सुअवसर देकर इन्‍हें
और स्‍वयं को धन्‍य माना

‘सहज’ कार्य करें पूर्ण विनय से
प्रतिभा की नहीं कमी ‘सदय’ में

काज करें दोनों ही ऐसे
कर्म ही धर्म हो उनका जैसे

‘सदय’ ने निजी संस्‍थान में बेहतर प्रदर्शन कर
तरक्‍की पर तरक्‍की पाई
बोनस, इन्‍क्रीमेंट आदि को पाते हुए
कर्मचारी से अधिकारी वर्ग में पदोन्‍नति पाई

वहीं ‘सहज’ सरकारी सिस्‍टम के
चक्रव्‍यूह में उलझ कर रह गये
यहां अपनी क्षमता को प्रदर्शित करना
बेमानी है, नादानी है भूल गये

यहां तो वरिष्‍ठों से सुना
कथन सटीक बैठता है
‘तुम मत सोचो कि
ऊंट किस करवट बैठता है

तुम तो हाथी की तरह
मस्‍त विश्राम करो
औरों को करने दो काम
तुम बस आराम करो

यदि लोगे अधिक टेंशन
तो श्रीमतीजी पाएंगी पेंशन’

भाई सरकारी सिस्‍टम का
हाल तो बिल्‍कुल निराला है
जो चाटुकार है, रसूखदार है
बस उसी का बोलबाला है

जो मेहनती है, वो
सबसे परेशान व दु:खी है
‘शुभेश’ जो कामचोर हैं, वो ही
सम्‍मानित और सुखी हैं।

(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)

तंद्रा—भंग

12:30:00 am
तंद्रा—भंग
आज मन उदास था
परिस्थितियों से निराश था
ना कोई साथी न कोई सहारा था
जिन्‍दगी ने मानो कर लिया‍ किनारा था

नौ‍कड़ी की तलाश में
आज फिर निकल पड़ा
जो बची-खुची रेजगाड़ी थी
उसे ही पर्स में रख चल पड़ा

बस की खिड़की वाली सीट
मैंने पकड़ ली
मेरे विचारों के साथ-साथ
बस ने भी रफ्तार धर ली

अगले स्‍टॉप पर
एक षोडषी ने बस में प्रवेश किया
मेरे बगल की सीट पर
झट कब्‍जा कर लिया

कब तक मैं यूं ही भटकता फिरुंगा
क्‍या मैं भी कभी
ऐसी किसी षोडषी से मिलूंगा

नयन मूंद कर मैं,
स्‍वप्‍नलोक में खोने लगा
तभी उस षोडषी का हाथ
मेरे सीने पर चलने लगा

लगता है मेरे जख्‍मों पर
वो मरहम लगा रही है
मेरा दर्द समझ कर मुझे
अपना बना रही है

अचानक बस झटके से रूकी,
मेरी तंद्रा टूटी

अब न तो मेरा पर्स दिख रहा था,
न ही वो षोडषी दिखी
मैं जिसे स्‍वप्न-सुन्‍दरी समझ रहा था,
वो कमबख्‍त पॉकिटमार निकली।।

(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)

मेरे राम

12:26:00 am
मेरे राम
मेरा राम न जन्‍म है धरता,
हर घट भीतर में वो बसता ।
                                    मैं नहीं पूजूं उनको भाई,
                                    जो रावण से लड़े लड़ाई ।
मेरे राम को प्रेम सभी से,
मिलते सहज भाव सब ही से ।।
                                     मैं ना ढूंढू मन्दिर-मस्जिद,
                                     ना गिरिजा ना कोई शिवालय ।
मन के भीतर ही मैं झांकू,
निर्मल-मन-चित्‍त है देवालय।।
                                      राम नहीं मन्दिर में रहते,
                                      बच्‍चों की मुस्‍कान में बसते ।
बच्‍चों सा निर्मल बन जाओ,
राम को अपने सम्‍मुख पाओ ।।
                                       निराकार स्‍वरूप है उनका,
                                       सत्‍य नाम हैं सब ही उनका ।

                   राम चरण गहि कहें ‘शुभेश’,
                   करहुं दया नहिं व्‍यापे क्‍लेश ।।

(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)

देश का विकास

12:23:00 am
देश का विकास

माननीय जी देश का हो रहा विकास है ।

घोटाला-भ्रष्‍टाचार-दंगा मुक्‍त भारत
आपने लिखी विकास की नई ईबारत
वैदेशिक सम्‍बंधों में बढ़ी मिठास है..........।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है....।।

अमरीका, इजरायल, जर्मनी और जापान
सबसे बनाए मधुर सम्‍बंध और विकास को किया गतिमान
परंतु आंतरिक सम्‍बंधों में अब भी वही खटास है....।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है...........।।

नोटबंदी के चक्‍कर में पूरा देश पस्‍त हो गया
अच्‍छे दिन आएंगे यह सोच सब कष्‍ट सह गया
भ्रष्‍टाचारी सलाखों के भीतर होंगे और काला धन बाहर आवेगा
जाने कब पूरी होगी यह आस है.....................।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है विकास है...।।

रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं
गरीबी तो नहीं, हां गरीब मिट रहे हैं
भारत के भविष्‍य कर रहे रोजगार की तलाश हैं....।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है..........।।

हमारे सच्‍चे पालक, प्रतिपालक, भारतीय किसान
कोई क्‍या जानें मंहगाई के इस दौर में खेती नहीं आसान
खेती के लिए भी कर्ज में डूबे हुए हैं
इनका विकास तो दूर की कौड़ी है,
अपने ही खेत में बंधुआ मजदूर बने हुए हैं
एक तो बाढ़ – सुखाड़ की त्रास है
ऊपर से सरकारी नीतियों ने भी किया निराश है.....।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है............।।

माननीय जी से विनम्र निवेदन, 
भाषण-सम्‍भाषण से ऊपर हो रोजगार सृजन ।

हर हाथ को काम और हर परिवार को आवास हो
जन-जन की भागीदारी के बिना अधूरा हर विकास है
माननीय जी सुनेंगे सबकी आवाज, यही इक आस है....।
माननीय जी देश का हो रहा विकास है................।

(विभागीय पत्रिका में प्रकाशित)

रविवार, 19 फ़रवरी 2017

मानवीय संवेदनहीनता की पराकाष्ठा

1:13:00 am
मानवीय संवेदनहीनता की पराकाष्ठा

अखबार के प्रथम पृष्ठ पर छपे खबर को पढ़कर स्तब्ध रह गया। आज लोगों की मानवीय संवेदनाएं इस स्तर तक खत्म हो चुकी है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कोलकाता के महानगरीय परिवेश और भाग—दौड़ भरी जिन्दगी के बीच एक 72 वर्षीय वृद्धा भीड़—भाड़ वाले पार्क में, जो कि उसके घर के सामने थी, में आत्मदाह कर लेती है और वहां मौजूद सारे लोग तमाशबीन बने देखते रह जाते हैं। किसी ने भी उसे बचाने का प्रयास नहीं किया। यह बहुत ही भयावह है। 
     बंगभूमि की राजधानी कोलकाता हमेशा से बुद्धिजीवियों का केन्द्र रही है। यहां से अनेक ऐसे महान समाज सुधारक उभरकर आए हैं जिन्होंने समाज को एक नई दिशा दी है। उसी कोलकाता में कभी ये दिन देखना पड़ेगा, यह कल्पना से परे था।
     आज हमारी संवेदनाएं फेसबुक और ट्वीटर तक सिमट कर रह गयी है। लोगों की सोच को मोबाईल और इन्टरनेट क्रांति ने कुंठित कर दिया है। आस—पास होने वाले घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने, उसे रोकने के लिए लोगों के पास वक्त नहीं है। डिजिटल क्रांति ने लोगों के बीच होने वाले सीधे सम्वाद/सम्पर्क को ह्वाट्सअप, फेसबुक और ट्वीटर तक सीमित कर दिया है। इसके दूरगामी प्रभाव अत्यंत भयावह होने वाले हैं। क्या आप ऐसे समाज की परिकल्पना कर सकते हैं, जिसमें समाज के किसी सदस्य को दूसरे से कोई सरोकार न हो, कदापि नहीं। आज हमें खासकर युवा वर्ग को आगे बढ़कर समाज को इस भयावह परिस्थिति से बचाना होगा। हम प्रकृति के बनाये सबसे बुद्धिमान व सुंदर रचना हैं। सामाजिक व्यवस्था का आधार ही उसके सदस्यों के बीच आपसी सामंजस्य और तालमेल है। यदि यह ही न रहा तो सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा ही समाप्त हो जाएगी।
     एक सजग व अच्छे सामाजिक सदस्य होने के नाते सबों का कर्तव्य है कि उपरोक्त घटना की पुनरावृति कदापि न हो। यथासम्भव यदि किसी एक भी व्यक्ति ने उस वृद्धा को बचाने का प्रयास किया होता तो वह शायद आज हमारे बीच होती। वह कोई भी हो सकती है, केवल इसलिए मूकदर्शक बने रहना कि वह हमारी परिचित नहीं, यह तो घोर अमानवीयता का परिचायक है।
     कृपया सोच बदलें और बेहतर समाज के निर्माण में सहयोग दें।
                                           ——— शुभेश

मंगलवार, 24 जनवरी 2017

जिन्दगी

10:18:00 am
-:: जिन्दगी ::-

अपना भविष्य सँवारने के खेल में,
वर्तमान दाँव पर लगा रहे हम ।
दो पल की खुशी की खातिर,
हर पल का चैन गंवा रहे हम ।।

सुकून से मिले दो वक्त की रोटी,
इसलिए परोस कर रखी थाली ठुकरा रहे हम ।
बच्ची को मिले हर वो सुकून, 
जिसकी चाहत थी मुझको,
इसलिए उसके संग बच्चा बन, 
वो मासूम बचपन नहीं जी पा रहे हम ।।

खुद को आशीर्वाद देने लायक, 
सामर्थ्यवान बनाने की कोशिश में,
मातृ—पितृ व श्रेष्ठ जनों के आशीष को, 
प्राप्त नहीं कर पा रहे हम ।
स्नेह की बारिश करने की जुगत में, 
अनुजों—प्रियजनों को स्नेह नहीं दे पा रहे हम ।।

जीवन—संगिनी को हर खुशी देने और 
उनके साथ भविष्य में सुख—लहरियां लेने के प्रयास में,
उनके वर्तमान को नजर अंदाज कर रहे हम ।।

तुझे बेहतर बनाने की कोशिश में 'शुभेश',
तुझे ही वक्त नहीं दे पा रहे हम ।
हाँ माफ करना मुझे ऐ जिन्दगी, 
तुझे जी नहीं पा रहे हम ।।
                             ~~~ शुभेश

रविवार, 1 जनवरी 2017

Wishing Happy New Year

12:15:00 am
Happy New Year

All days happy day
No day tear.
Oh! my dear
Happy New Year.

All times polite
No time bear.
Oh! my dear
Happy New Year.

Sometimes come flood
Sometime sear.
But Oh! my dear
Happy New Year.

When comes flood
Don’t go pier.
Oh! my dear
Happy New Year.

O dear, O dear
I’m only your lover
In this new year
Much more eats pear.

And remember
Don’t show tear.
Oh! my dear
Happy New Year.

All days happy day
No day tear.
Oh! my dear
Happy New Year.