संत कबीर के विचार -आज कितने प्रासंगिक
भारत की पावन वसुंधरा अनेकों महान साधु - संतों की जननी रही है, जिन्होंने अपने पावन जीवन-दर्शन से भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को लाभान्वित किया है। ऐसे ही संतों की श्रेणी में अग्रणी नाम परम तेजस्वी संत कबीर का है। इस धरा-धाम पर संत कबीर का पदार्पण ऐसे समय में हुआ जब एक ओर तो भारतीय जनमानस हिन्दू धर्म में गहरी पैठ बना चुके आडम्बरों व कुप्रथाओं से लड़ रहा था, वहीं दूसरी ओर आततायी लोदी शासकों के अन्याय और जबरन धर्म-परिवर्तन का शिकार हो रहा था।
विभिन्न विद्वानों-इतिहासकारों के अनुसार संत कबीर का जन्मकाल 1398 ई. के आस-पास था। वे सैय्यद और लोदी शासकों के समकालीन थे। संत कबीर के जन्म के सम्बंध में कबीर-पंथियों में एक दोहा प्रचलित है-
चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए ।
ज्येष्ठ सुदी बरसाईत को, पूरनमासी प्रकट भए ।।
अर्थात् संत कबीर का प्राकट्य काल विक्रमी संवत 1455 संवत ज्येष्ठ मास के पुर्णिमा के दिन हुआ था। कबीर ने सदैव दया और प्रेम जैसी मानवतावादी भावों को अपने विचारों में अधिक स्थान दिया है-
दया राखि धरम को पाले, जग से रहे उदासी ।
अपना सा जी सबका जाने, ताहि मिले अविनाशी ।।
जहां दया, तहां धर्म है, जहां लोभ तहां पाप ।
जहां क्रोध तहां काल है, जहां क्षमा वहां आप ।।
जीवन की सत्यता का बोध कराने के लिए उन्होंने प्रभावशाली अभिव्यक्ति दी है जो उनके साखियों में स्पष्टत: परिलक्षित होता है –
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझ-सा बुरा न कोय ।।
चुन-चुन तिनका महल बनाया, लोग कहें घर मेरा ।
ना घर मेरा, ना घर तेरा, चिडि़या रैन बसेरा ।।
हाड़ जड़े ज्यों लाकड़ी, केस जड़े जस घास ।
पानी केरा बुलबुला, अस मानुष की जात ।।
पानी ही ते हिम भया, हिम होय गया बिलाय ।
जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाय ।।
कबीर दिखावटी प्रेम के स्थान पर आंतरिक प्रेम और लौकिक प्रेम के स्थान पर परमात्मा के प्रति निश्छल प्रेम को प्रमुखता देते हैं। उनके अनुसार प्रेम सर्वत्र है -
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रूचै, शीश देइ लै जाय ।।
जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं ।
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दोउ न समाय ।।
बाहर क्या दिखलाइए, अंतर जपिए राम ।
कहां काज संसार से, तुझे धनी से काम ।।
कबीर अपने साखियों में मानव जीवन के यथार्थ से भी परिचय कराते हैं और जीवनरूपी नाव को खेने का ढंग भी सिखलाते हैं-
कबिरा गर्व न कीजिए, कबहुं न हंसिए कोई ।
अजहुं नाव समुद्र में, ना जाने का होई।।
जो तोकूं कांटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, वा कू है तिरशूल ।।
निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय ।
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करे सुभाय ।।
वृक्ष कबहुं न फल भखै, नदी न संचै नीर ।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर ।।
संत कबीर तन की शुद्धता के स्थान पर मन की शुद्धता को अधिक महत्व देते हैं-
नहाए धोय क्या हुआ, ज्यों मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ।।
संत कबीर ने धर्म के नाम पर हो रहे आडम्बरों का कड़ा विरोध किया और विभिन्न कुप्रथाओं पर आमजनों की भाषा में ही आघात किया –
पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़ ।
ता से तो चक्की भली, पीस खाय संसार ।।
हिन्दू-तुरूक की एक राह है, सतगुरू इहै बताई ।
कहहि कबीर सुनहु हो सन्तों, राम न कहेउ खुदाई ।।
कबीर दिखावटी स्वांग को त्याग कर निर्मल हृदय से भगवत भजन की सलाह देते हैं –
कबीर जपनी काठ की, क्या दिखलावे मोहि ।
हृदय नाम न जापिहें, यह जपनी क्या होहि ।।
पिया का मारग सुगम है, तेरा भजन अवेड़ा ।
नाच न जानै बापुड़ी, कहता आंगन टेढ़ा ।।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ।।
वर्तमान समय भी कुछ अलग नहीं है। निरंतर धर्म के नाम पर हो रही हिंसा और अंधविश्वास की भेंट चढ रही मानव जिन्दगियों को देख लगता है कि हमने संत कबीर के विचारों को पूरी तरह विस्मृत कर दिया है। संत कबीर केवल धार्मिक सुधारक ही नहीं थे, उनके विचारों ने समाज को एक नई दिशा दी। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक है। उन्होंने मानव को जीवमात्र से प्रेम करना सिखलाया। बाह्य आडम्बरों को सिरे से नकारते हुए सच्चे मन से भगवत भजन की सलाह दी।
ओ३म् ।। शांति: ।। शांति: ।। शांति: ।।
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