गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

प्रभु कब तक यूँ ही तरपाओगे

प्रभु कब तक यूँ ही तरपाओगे

प्रभु जी, प्रभु जी ओ प्रभु जी
प्रभु कब तक यूँ ही तरपाओगे
नयन मूँद कर, हमसे रूठकर
कब तक हमें तुम सताओगे
प्रभु जी, ओ प्रभु जी......
मेहनत की नही है मानो कदर
भटकते रहे हम, हो दर-ब-दर
जहां से चले थे फिर पहुंचे वहीं
कब तक बता दो है केशव हमें,
पेंडुलम की तरह यूँ घुमाओगे
प्रभु जी, हे प्रभु जी..............
अकेला शहर में, मैं तन्हा डगर में
कर्मभूमि में भी अकेला खड़ा हूँ
तूने जो मुंह फेर ली हमसे माधव
घर हो या बाहर नियति से लड़ा हूँ
कोई कर्म के वश, कोई धर्म के वश
हमारी नियति भी कहाँ अपने है वश
प्रभु जी, ओ प्रभु जी...........
मेरा मर्म जाने, जगत में न कोई
हाँ मैं मानता हूँ, ये सब जानता हूँ
दिखाते हो तस्वीर तुम जिसको जैसे
समझता उसे सच है बिल्कुल ही वैसे
पर दोष किसका जो छवि देखता है?
या दोष तेरा जो सर्वज्ञ हो, मुँह फेरता है?
हम तन्हा तेरी राहों में खड़े हैं
हे केशव, कृपा बिन विकल हो रहे हैं
प्रभु जी, हाँ प्रभु जी.....................
कर्म कुछ विकट हमने शायद किये हों
तभी तो हे राघव नयन मूंदते हो
क्षमाप्रार्थी हूँ हे सर्वज्ञ केशव
उचित ही करोगे जानता हूँ मैं माधव
वो घड़ी आएगी कब बता दो हे राघव
जब तुम्हारी सुदृष्टि पड़ेगी हम सब पर
वो दृष्टि तुम्हारी जो कल्याणकारी
सकल दुःख-विपदा पर पड़ती जो भारी
प्रभु जी, ओ प्रभु जी....................
शुभेश करें विनती हे प्रभु जी, प्रभु जी
हम सबको तू अपना, हाँ अपना ही समझो
विपत्ति की कितनी कठिन ही घड़ी हो
दया-दृष्टि हम पर सदा रख ही परखो
हे प्रभु जी, हाँ प्रभु जी, ओ प्रभु जी

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