क्यों
प्रभु हम सब तेरी संतति हैं
तुझ से ही पाते शक्ति हैं
पर कोई क्यों हरि हर द्रोही हैं
कुछ ही में क्यों तेरी भक्ति है
समरूप विराजो सब में तुम
सब ही तो फिर पुण्यात्मा हैं
फिर क्यों कर कोई कपटी द्वेषी
केवल कुछ साधु महात्मा हैं
इक तन से श्रमकण रिस रिस बहता
वो तन मन की पीड़ा सहता
फिर भी वो सुख से दूर है क्यों
हाँ कहो प्रभु, मजबूर है क्यों
एक को तेरी ना कोई कदर
ना भक्ति भाव किया कहीं ठहर
कुत्सित व्यसन, सामिष भोजन
फिर भी सुख ने थामा दामन
तुम कहते भूखा भाव का हूँ
अति ही निर्मल स्वभाव का हूँ
पर निर्मल स्वभाव क्यों दीन दुःखी
कपटी द्वेषी क्यों परम् सुखी
होना तो बहुत कुछ चाहिए था
पर तेरा खेल निराला है
हम अपना चाहने वाले हैं
तू सबका चाहने वाला है
परिस्थितियां तो तेरे ही वश
केवल है कर्म हमारे वश
सत कर्म की अलख जगाता हूँ
बस इससे तुझे रिझाता हूँ
धन संपत्ति सौभाग्य कठिन
नहीं इससे मिटे क्लेश दुर्दिन
*प्रभु तेरी कृपा की चाह मुझे*
*बस रखियो अपनी राह मुझे*
..................... *शुभेश*
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