शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

नयन नीर भरि रोए बकरिया

2:39:00 pm

नयन नीर भरि रोए बकरिया


नयन नीर भरि रोए बकरिया,

कोन कसूरवा मोर हे।

घासे पाते हम चिबाबी

नै किनको त हम सताबी,

करी ने हम बलजोर हे।


अपन बच्चा सन मनुखक बच्चा

दूध पीएलौं, बूझि के सच्चा

लाज ने आबै तोर हे।


शुभ अवसर तोहर घर आओल

मंगलगीत सखी सब गाओल

हमहूँ नचितौं जोर रे।


कोन कसुरवे हम सताओल

रुधिर धार किआ मोर बहाओल

मांस खाओल किआ मोर रे।


कहलथि सद्गुरु सत्य कबीर

जम केर फ़ांस में पड़लै जीव

जनम सुधारो तोर हे।।

नयन नीर भरि रोए बकरिया......

........

साहेब बन्दगी-३🙏🙏🙏

चहुँ दिशि घिरल अन्हरिया

2:26:00 pm

चहुँ दिशि घिरल अन्हरिया


चहुँ दिशि घिरल अन्हरिया ओ बाबा

चहुँ दिशि घिरल अन्हरिया

कतौ ने देखी इजोरिया ओ बाबा

कतओ ने देखी इजोरिया


इंद्री कुटिल भाव मुस्काबय

माया ठगिनी बाण चलाबय

निशि दिन जग भरमाबय ओ बाबा


काम क्रोध के अगिन जराबै

लोभ मोह दिन रात सताबै

डरबै दुःखक बदरिया ओ बाबा


पंथ बतएलौं गुरू कृपा के

साधु संत चलथिन्ह जाहि बाटे

चललौं ताहि डगरिया ओ बाबा


काग जहाजक गति प्रभु मोरा

जाऊं कत, करू ककर निहोरा

शुभेश आब अहींक शरणियाँ ओ बाबा

हम सब अहींक शरणियाँ

🙏🙏🙏

उलझन (हिन्‍दी वर्जन)

2:23:00 pm

 उलझन


बड़ी उलझन में है मेरा मन,

तू तो जाने सब कुछ भगवन।

तू तो जाने सब कुछ भगवन।।


ज्ञान बोध से रहित जभी था,

भगवन तेरे निकट तभी था।

बचपन के मन की निर्मलता,

सुंदर सहज भाव शीतलता।।


निश्छल प्रेम बसा था भीतर,

सहज समर्पित सब कुछ तुम पर।

मन में कोई राग न द्वेष,

सहज प्रेम से पूरित भेष।।


बोध भावना आई जब से,

चित्त प्रदूषित हुआ है तब से।

पाप पुण्य की ढेरों उलझन,

कल-बल-छल में भर्मित ये मन।।


कोटि जतन करूँ निर्मल मन की,

आतम-राम के दिव्य मिलन की।

पर इन्द्री वश से निकलूँ कैसे,

माया मोह तजूं मैं कैसे।।


सदन कसाई की निर्मलता

पातकता में भी पवित्रता

पतित पावन हो मेरे स्वामी,

करो कृपा प्रभु अंतर्यामी।


माया मोह राग औ द्वेष,

काया जनित व्यथा औ क्लेश।

इनके बीच में कृपा विशेष,

मांगे तेरी शरण शुभेश।।

राम करे ऐसा हो जाए

2:20:00 pm

राम करे ऐसा हो जाए


राम करे ऐसा हो जाए।

कष्ट, व्याधि, दुःख सब मिटि जाए।।

दुःखी नहीं कोई जग में रहे अब।

सब कोई हर्षित, सुखमय हो सब।।

जो दुःख का होना हो जरूरी।

प्रभु तेरे चरणों से मिट जाए दूरी।।

तेरे चरणों की शरण में रहकर।

सुख दुःख जानूँगा मैं सम कर।।

इतनी कृपा बनाए रखना।

दोष बिसारि शरण में रखना।।

तेरी कृपा की आस है शेष।

कुटुंब सहित तेरे शरण शुभेश।।

🙏🙏🙏

दादी

1:52:00 pm

 दादी


जिसने बीज बोए रचनात्‍मकता के

भक्ति-भाव के और समता के

दीन-हीन के प्रति ममता के


निर्गुण भजनों की मधुराई

या रामायण की चौपाई

सार-शब्‍द सबके समझाती

भक्ति-प्रेम की पावन धारा

में हम सबको लेकर वो जाती


परम पूज्‍य श्रीयुत् गुरूवर के

सान्निध्‍य का दुर्लभ अवसर

करती जतन थी लाखों ऐसी

प्रभु की कृपा जो बरसें सब पर


प्‍यारी दादी बिनबौं तुझको

तेरी कमी है अंतरतम में

बस, श्रद्धा भाव हैं सजल नयन में

साहेब बन्‍दगी चरण कमल में

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

उलझन

1:50:00 pm

उलझन 


बड उलझन में अई हम्मर मन

तू त जानय सब किछु भगवन

तू त जानय सब किछु भगवन

बड उलझन में अई हम्मर मन


मन में नै छल दुनियादारी

हम्मर ओकर मारामारी

धिया पुता सन् मन छल निर्मल

नै किछ मन में छल-छिद्रम छल


निश्छल प्रेम भरल छल भीतर

सहज समर्पित तोहरे ऊपर

मन में किछुओ राग ने द्वेष

सहज प्रेम सौं पूरित भेष


बोध भावना आओल जखने

चित्त कलुषित भ गेल तखने

पाप-पुण्य केर कत्ते उलझन

कल बल छल में भर्मित भेल मन


कतेक जतन करि निर्मल मन लेल

मनुआ तरसै तोहरे चरण लेल

इन्द्री वश सँ निकली कोना

माया मोह तजी हम कोना


सदन कसाई केर निर्मलता

पावन मनुआ अओर सहजता

पतित पावन छी अहाँ स्वामी

करू कृपा प्रभु अन्तर्यामी


माया मोह राग आ द्वेष

काया जनित व्यथा ई क्लेश

सबके मेटि करू कृपा विशेष

माँगय अहाँक शरण 'शुभेश'

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

क्यों

1:48:00 pm

 क्यों


प्रभु हम सब तेरी संतति हैं

तुझ से ही पाते शक्ति हैं

पर कोई क्यों हरि हर द्रोही हैं

कुछ ही में क्यों तेरी भक्ति है


समरूप विराजो सब में तुम

सब ही तो फिर पुण्यात्मा हैं

फिर क्यों कर कोई कपटी द्वेषी

केवल कुछ साधु महात्मा हैं


इक तन से श्रमकण रिस रिस बहता

वो तन मन की पीड़ा सहता

फिर भी वो सुख से दूर है क्यों

हाँ कहो प्रभु,  मजबूर है क्यों


एक को तेरी ना कोई कदर

ना भक्ति भाव किया कहीं ठहर

कुत्सित व्यसन, सामिष भोजन

फिर भी सुख ने थामा दामन


तुम कहते भूखा भाव का हूँ

अति ही निर्मल स्वभाव का हूँ

पर निर्मल स्वभाव क्यों दीन दुःखी

कपटी द्वेषी क्यों परम् सुखी


होना तो बहुत कुछ चाहिए था

पर तेरा खेल निराला है

हम अपना चाहने वाले हैं

तू सबका चाहने वाला है


परिस्थितियां तो तेरे ही वश

केवल है कर्म हमारे वश

सत कर्म की अलख जगाता हूँ

बस इससे तुझे रिझाता हूँ


धन संपत्ति सौभाग्य कठिन

नहीं इससे मिटे क्लेश दुर्दिन

*प्रभु तेरी कृपा की चाह मुझे*

*बस रखियो अपनी राह मुझे*

..................... *शुभेश*

भगवन की थिक दोष हमर

1:46:00 pm

भगवन की थिक दोष हमर


भगवन की थिक दोष हमर

केहि अपराध नाथ बिसराओल

हम तँ जनम जनम केर सेवक

केहि अवगुण लेल नाथ सताओल


की कही हम कोना रहै छी

अहाँ विरह में कोना जीबै छी

अहाँ कखन धरि आँखि नुकायब

हमरा दिस सँ मुंह घुमायब

हमहुँ ढीठ बड़ पैघ अहीं सन

चौखट छोरि कतहुँ नहिं जायब

भगवन की थिक........


भेल होई जौं उलट कर्म किछु

सादर चरण में सब समर्पित

गुण अवगुण के बोध ने हमरा

जौं रहितए त भटकि तौं किआ

भवसागर में छी बौराअल

भगवन जूनि करू देर, राह देखाउ

भगवन की थिक........


सब प्रकार प्रभु समरथ अहाँ

लै दुखड़ा हम जाऊं कहाँ

बेरि बेरि अहाँ जांच जे ले लौं

नाम अहीं लै पार भेलौं

आब कृपा करू समरथ स्वामी

दोष बिसारि शरण लिअ स्वामी

भगवन की थिक.........


कण-कण में प्रभु अहीं छी व्यापल

तइओ आकुल नैन अभागल

सजल नैन रहे दिवस रैन प्रभु

आकुल मनुआ तनिको ने चैन प्रभु


दरस भेटत सब कष्ट कटत

सोचि मुदित आनंद मगन छी

अछि मतिमन्द सानंद 'शुभेश'

जूनि तरपाऊ करू कृपा विशेष।।

 

बुधवार, 5 जनवरी 2022

तिमिर घिरल घनघोर

8:21:00 am

 तिमिर घिरल घनघोर


तिमिर घिरल घनघोर

यौ मालिक..... तिमिर घिरल घनघोर।

आकुल मनुआ पंथ निहारै,

कहाँ छुपल अछि भोर।

यौ मालिक.... तिमिर घिरल घनघोर।।


अगम अथाहे भटकै मनुआ,

जिनगीक थाह नै पाबै मनुआ,

जाऊं कहां कित ओर ।

यौ मालिक.... तिमिर घिरल घनघोर।।


बुद्धि ज्ञान सब क्षीण भेल अइ,

माया मोह में लीन भेल अइ,

इन्द्री करै बड़ जोर।

यौ मालिक.... तिमिर घिरल घनघोर।।


भवकूपक अंधियार डराबै,

नयन अभागलि देखिए नै पाबै,

तनिको ने कतौ इजोत।

यौ मालिक.... तिमिर घिरल घनघोर।।


आब कृपा करू अंतर्यामी,

सर्व सहायी, समरथ स्वामी,

भव पसरल चहुँ ओर।

यौ मालिक.... तिमिर घिरल घनघोर।।


'शुभेश' अछि अधम पतित बड़ मालिक,  

अहीं शरण में अयलौं मालिक,

आस केवल अहिं ओर।

यौ मालिक.... तिमिर घिरल घनघोर।।


साहेब बन्दगी-३🙏🙏🙏

© शुभेश

आहार चेतना-मानवीय, धार्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष

8:15:00 am

 आहार चेतना-मानवीय, धार्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष

किसी भी मनुष्य का विचार उसके आहार पर निर्भर करता है। सात्विक आहार से शुद्ध विचार की उत्पति होती है। इस सम्बंध में श्रेष्ठजनों से सुनी एक लघुकथा आपके साथ साझा करना चाहता हूं। बहुत समय पहले की बात है, एक परम ज्ञानी तपस्वी ऋषि थे। वे बालपन से ही भगवत प्रेमी एवं सदाचारी थे। वे गांव-गांव घूम कर उपदेश दिया करते थे। एक बार गर्मी के समय वे किसी गांव से गुजर रहे थे। रेगिस्तानी इलाका था, इसलिए उन्हें शीघ्र ही प्यास सताने लगी। बहुत दूर चलने के बाद उन्हें एक कुंआ दिखाई पड़ा। वहां रखी बाल्टी से पानी निकाल कर उन्होंने अपनी प्यास बुझाई। प्यास बुझने के बाद उनके मन में एक विचार आया कि क्यों न मैं ये बाल्टी जल से भर कर अपने साथ रख लूं ताकि आगे यात्रा के दौरान मुझे प्यास लगे तो मुझे प्यास से तड़पना न पड़े। यह सोचकर  उन्होंने बाल्टी पानी से भरी और साथ लेकर आगे बढ़ चले। कुछ देर चलने के पश्चात मानों उनका ध्यान टूटा। वे सोचने लगे मुझ से कितना बड़ा पाप हो गया। मैंने कभी कोई बुरा कार्य नहीं किया और आज मैंने चोरी कर ली। वह भी ऐसे कुंए के बाल्टी की चोरी, जो न जाने कितने प्यासों को तृप्त करती थी। वे यह सोचने के लिए विवश हो गए कि इतना तप एवं भगवत ध्यान के पश्चात भी मेरे मन में ऐसे कुत्सित भाव कैसे उत्पन्न हुए। वे इसका पता लगाने पहुंचे। गांव वालों से उन्हें ज्ञात हुआ कि यह कुंआ एक चोर ने अपने आखिरी समय में पुण्य प्राप्ति होती चोरी के धन से खुदवाई थी। अब उन्हें समझ में आया कि चोरी का यह भाव उनके मन में कैसे उत्पन्न हुआ। कहा भी गया है- जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन।

तो शुद्ध विचार के लिए आहार सात्विक होना परम आवश्यक है। सात्विक आहार अर्थात शाकाहार। शाकाहार हमारे शरीर को अनेक व्याधियों से बचाता है। आज जब संपूर्ण विश्व हमारे गौरवशाली भारतीय संस्कृति पर मंथन कर उसे आत्मसात कर रही है। वहीं गौतम बुद्ध, महावीर जैन, कबीर, नानक जैसे महान पुरूषों की जननी इस वसुंधरा की संतति होकर भी हम पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण में लगे हुए हैं। अभी हाल ही में मैंने एक लेख पढ़ा था जिसमें बताया गया था कि इंग्लैण्ड एवम् अमेरिका में हाल के दशक में शाकाहार अपनाने वालों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। हमें इस विषय पर आत्ममंथन करने की आवश्यकता है कि जिस बौद्ध धर्म ने भारत के बाहर अनेक देशों में अपनी अमिट छाप छोड़ी है, वह अपने ही देश में उपेक्षित क्यों है। महावीर, कबीर, नानक के विचार यहीं अप्रासंगिक क्यों है।

मैं सर्वप्रथम शाकाहार पर बल देने हेतु इसके मानवीय पक्ष को आपके सामने प्रस्तुत करता हूं। दया, संयम, उचित-अनुचित का भेद ज्ञान यही सब गुण तो मनुष्य को मनुष्य बनाता है अन्यथा उसमें और पशु में क्या अंतर रह जाएगा। यही तो मानवता है। अब मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं। यदि आपके घर में कोई शुभ कार्य होता है अर्थात विवाह, जन्मोत्सव आदि। तो उन अवसरों पर भी मांस का सेवन किया जाता है। आप बताएं कि अपने पुत्र के जन्म की खुशी मनाने के लिए किसी और के पुत्र की बलि चढ़ाना उचित है? आप जिस जीव (बकरी, मुर्गी,मछली आदि) का मांस परोस रहे हैं वह भी तो किसी का पुत्र/पुत्री था। खुशी आपके घर आई इसमें उनका क्या दोष जिन्हें अपना संतान खोना पड़ा। तनिक विचार कर देखिए।

अब मैं शाकाहार के धार्मिक पक्ष से आपको अवगत कराना चाहूंगा। भगवान महावीर ने जीव-हत्या को अत्यंत निकृष्ट कार्य माना है एवम् शुद्ध-सात्विक आहार पर सर्वाधिक बल दिया है। उन्होंने तो शुद्ध आहार के साथ-साथ प्राणवायु की शुद्धता पर भी बल दिया है। आप जैन पंथ के मानने वालों को देखते होंगे कि वे मुंह पर कपड़ा बांधकर रखते हैं। वो इसलिए कि भूल से भी श्वास के माध्यम से कोई जीव, कीट-पतंग उनके मुंह में न चला जाए और वे उनकी हत्या के अपराधी न हो जाएं। परन्तु उनके विचार गृहस्थ एवम् सामाजिक व्यवस्था में प्रचलित नहीं हो पाये क्योंकि उनके बनाए नियम अधिकांशतः सन्यास व्यवस्था पर आधारित थे। वहीं गौतम बुद्ध ने इसे थोड़ा सरल बनाकर सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल बनाया। इस कारण वह उस समय बहुत प्रचलित हुआ। उन्होंने भी जीव-हत्या को सर्वथा निषेध बताया। दशावतार में गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का नौवां अवतार माना गया है।

वेदों में भी कहा गया है - ‘‘व्रीहिमत्तं यवमत्तमथोमाषम तिलम् एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दन्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च। ’’ अर्थात चावल खाओ ;व्रीहिम् अत्तं), जौ खाओ (यवम् अत्तं) और उड़द खाओ (अथो माषम्) और तिल खाओ (अथो तिलम्)। हे ऊपर नीचे के दांत (दन्तौ) तुम्हारे (वां) ये भाग (एष भागो) निहित है उत्तम फलादि के लिए (रत्नधेयाय)। किसी नर और मादा को (पितरं मातरं च) मत मारो (मा हिं सिष्टं)। 

संत कबीर साहब ने कहा है-


जस मांसु पशु की तस मांसु नर की, रूधिर-रूधिर एक सारा जी।

पशु की मांस भखै सब कोई, नरहिं न भखै सियारा जी।।

ब्रह्म कुलाल मेदिनी भरिया,  उपजि बिनसि कित गईया जी।

मांसु मछरिया तो पै खैये, जो खेतन मँह बोईया जी।।

माटी के करि देवी-देवा, काटि-काटि जीव देईया जी।

जो तोहरा है सांचा देवा, खेत चरत क्यों न लेईया जी।।

कहँहि कबीर सुनो हो संतो, राम-नाम नित लेईया जी।

जो किछु कियउ जिभ्या के स्वारथ, बदल पराया लेईया जी।। (शब्द-70)

शब्दार्थ :- जैसा पशु का मांस , वैसा ही मनुष्य का मांस है। दोनों में एक ही रक्त बहता है। मांसाहारी पशु मांस का भक्षण करते हैं और जो मनुष्य ऐसा करता है वो सियार के समान है। ईश्वर रूपी कुम्हार (ब्रह्म कुलाल) ने इतने बाग-बगीचे बनाये, फल-फूल बनाया वो सब उपज कर कहां जाते हैं। मांस-मछली खाना तो दोषपूर्ण (पै) है। उसे खाओ जो खेतों में बोआ जाता है। मिट्टी के देवी-देवता बनाकर उन्हें जीवित पशु की बलि चढ़ाते हो। यदि तुम्हारे देवता सचमुच बलि चाहते हैं तो वह खेतों में चरते हुए पशुओं को क्यों नहीं खा जाते। कबीर साहेब कहते हैं कि यह सब कर्म त्याग कर नित राम-नाम (भगवान नाम) का सुमिरन किया करो। अन्यथा तुम जो भी अपने जिह्वा के स्वाद के कारण यह कर रहे हो उसका बदला भी तुम्हें उसी तरह चुकाना पड़ेगा। 

एक दूसरी जगह संत कबीर कहते हैं - ‘‘पंडित एक अचरज बड़ होई। एक मरि मुये अन्न नहिं खाई।। एक मरि सीझै रसोई।। ’’ अर्थात हे पंडितों, ज्ञानियों एक बहुत बड़े अचरज(आश्चर्य) की बात सुनाता हूं। एक जीव के मरने पर तो तुम शोक मनाते हो और अन्न नहिं खाते हो वहीं दूसरी ओर एक जीव को मारकर रसोई बनाते हो।


अब शाकाहार के सम्बंध में कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर भी प्रकाश डालते हैं। हमारे शरीर की रचना कुछ इस प्रकार की है जिससे वह शाकाहारी प्राणियों के समूह में आता है। मांसाहारी जंतुओं में मांस को चीरने-फाड़ने के लिए बेहद नुकीले व पैने दांत रदनक (ब्ंदपदम) पाया जाता है। परंतु मनुष्यों में इसका अभाव होता है। समस्त मांसाहारी जीव अपनी जिह्वा से पानी पीते हैं। परंतु शाकाहारी जंतु पानी घूंट-घूंट कर पीते हैं और गटकते हैं। मनुष्य भी ऐसा ही करता है। आप यदि कहीं विक्षिप्त शव या कोई मांस का टुकड़ा इत्यादि देखते हैं तो सर्वप्रथम घृणा का भाव पैदा होता है। क्योंकि हमारा शरीर की बनावट शाकाहारी जंतु की है, इसलिए मस्तिष्क सम्बंधित तंत्रिका को घृणा का भाव प्रेषित करता है, जिससे हम विक्षिप्त शव या कोई मांस का टुकड़ा इत्यादि देखते ही मुंह फेर लेते है। यदि हमारा शरीर मांसाहारी प्रकृति का होता तो उसके लिए यह लालसा की वस्तु होती। परंतु ऐसा नहीं होता। 

छान्दोग्योपनिषद मे कहा गया है- ‘‘आहारशुद्ध होने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, अंतःकरण के शुद्ध हो जाने से भावना दृढ़ होती है और भावना की स्थिरता से ह्रद्य की समस्त गांठे खुल जाती है।’’


इस सम्पूर्ण आलेख का सार यह है कि अपनी आहार चेतना को जागृत कर हमें शाकाहार पर बल देना चाहिए। शाकाहार ही सर्वोत्तम आहार है।


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