पार करो नैया
हे अपरंपार पार करो नैया फंसी है बीच भंवर में ।तुम बिन दूसर कोई न खेवैया, इस अथाह सागर में ।।
हम हैं पापी अवगुण राशि, करम अधम अति मेरे ।
सुख—दु:ख, धन—संपति और विपदा, हैं सब माया तेरे ।।
लोभ—क्रोध, मद—मोह जनित यह पाप की गठरी भारी ।
कैसे पार करूं मैं भव को, हूं अब शरण तुम्हारी ।।
हम नादान चंचल अज्ञानी, विनती करूं मैं कैसे ।
जैसे तारा गज और गणिका, तारो हमको वैसे ।।
~~~शुभेश
('सत्य की ओर' पत्रिका में प्रकाशित)
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