सोमवार, 13 जुलाई 2015

हे अपरंपार पार करो नैया

पार करो नैया
हे अपरंपार पार करो नैया फंसी है बीच भंवर में ।
तुम बिन दूसर कोई न खेवैया, इस अथाह सागर में ।।
हम हैं पापी अवगुण राशि, करम अधम अति मेरे ।
सुख—दु:ख, धन—संपति और विपदा, हैं सब माया तेरे ।।
लोभ—क्रोध, मद—मोह जनित यह पाप की गठरी भारी ।
कैसे पार करूं मैं भव को, हूं अब शरण तुम्हारी ।।
हम नादान चंचल अज्ञानी, विनती करूं मैं कैसे ।
जैसे तारा गज और गणिका, तारो हमको वैसे ।।
                                                          ~~~शुभेश
('सत्य की ओर' पत्रिका में प्रकाशित)

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