मंगलवार, 14 जुलाई 2015

यूं ही सफर में

यूं ही सफर में
वो सहमी, वो चुपचुप, अपने में गुमसुम ।
न बोले न हंसती, डब्बे में कोई नहीं भी है वैसी ।
मेरा ध्यान खींचे, क्यूं है वो ऐसी ।।
उसके साथ कुनबा है सारा का सारा।
पर लगता नहीं कोई उसको है प्यारा ।।
गोद में उसकी है, नन्हीं सी गुड़िया ।
कोमल—सुकोमल, चंचल इक बिटिया ।।
कभी मुंह चूमें, कभी बाल खींचे वो नन्हीं सी गुड़िया ।
उस नन्हीं सुकोमल की चंचल छुअन की,
सहज एक चाहत उठती है मन में ।
पर जैसे उस मां को उस नन्हीं सी जां की,
न थोड़ी सी चिंता, न चाहत है मन में ।।
हुई रात अब तो सोने की चिंता,
छ: सीट है और सात सवारी ।
लो सीटों पे सोएंगे सारे के सारे,
बस नीचे सोएगी, अम्मा संग प्यारी ।।
कहते वो आए मां वैष्णों यहां से ।
जो जगत जननी सबकी वो जगदम्बे मां से ।।
पूछे है ये मन, क्यूं इतनी उपेक्षा,
उस नन्हीं सी जां की, जां की और मां की ।।
                                               ~~~शुभेश

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें