आहार चेतना-मानवीय, धार्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष
आहार चेतना-मानवीय, धार्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष
किसी भी मनुष्य का विचार उसके आहार पर निर्भर करता है। सात्विक आहार से शुद्ध विचार की उत्पति होती है। इस सम्बंध में श्रेष्ठजनों से सुनी एक लघुकथा आपके साथ साझा करना चाहता हूं। बहुत समय पहले की बात है, एक परम ज्ञानी तपस्वी ऋषि थे। वे बालपन से ही भगवत प्रेमी एवं सदाचारी थे। वे गांव-गांव घूम कर उपदेश दिया करते थे। एक बार गर्मी के समय वे किसी गांव से गुजर रहे थे। रेगिस्तानी इलाका था, इसलिए उन्हें शीघ्र ही प्यास सताने लगी। बहुत दूर चलने के बाद उन्हें एक कुंआ दिखाई पड़ा। वहां रखी बाल्टी से पानी निकाल कर उन्होंने अपनी प्यास बुझाई। प्यास बुझने के बाद उनके मन में एक विचार आया कि क्यों न मैं ये बाल्टी जल से भर कर अपने साथ रख लूं ताकि आगे यात्रा के दौरान मुझे प्यास लगे तो मुझे प्यास से तड़पना न पड़े। यह सोचकर उन्होंने बाल्टी पानी से भरी और साथ लेकर आगे बढ़ चले। कुछ देर चलने के पश्चात मानों उनका ध्यान टूटा। वे सोचने लगे मुझ से कितना बड़ा पाप हो गया। मैंने कभी कोई बुरा कार्य नहीं किया और आज मैंने चोरी कर ली। वह भी ऐसे कुंए के बाल्टी की चोरी, जो न जाने कितने प्यासों को तृप्त करती थी। वे यह सोचने के लिए विवश हो गए कि इतना तप एवं भगवत ध्यान के पश्चात भी मेरे मन में ऐसे कुत्सित भाव कैसे उत्पन्न हुए। वे इसका पता लगाने पहुंचे। गांव वालों से उन्हें ज्ञात हुआ कि यह कुंआ एक चोर ने अपने आखिरी समय में पुण्य प्राप्ति होती चोरी के धन से खुदवाई थी। अब उन्हें समझ में आया कि चोरी का यह भाव उनके मन में कैसे उत्पन्न हुआ। कहा भी गया है- जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन।
तो शुद्ध विचार के लिए आहार सात्विक होना परम आवश्यक है। सात्विक आहार अर्थात शाकाहार। शाकाहार हमारे शरीर को अनेक व्याधियों से बचाता है। आज जब संपूर्ण विश्व हमारे गौरवशाली भारतीय संस्कृति पर मंथन कर उसे आत्मसात कर रही है। वहीं गौतम बुद्ध, महावीर जैन, कबीर, नानक जैसे महान पुरूषों की जननी इस वसुंधरा की संतति होकर भी हम पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण में लगे हुए हैं। अभी हाल ही में मैंने एक लेख पढ़ा था जिसमें बताया गया था कि इंग्लैण्ड एवम् अमेरिका में हाल के दशक में शाकाहार अपनाने वालों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। हमें इस विषय पर आत्ममंथन करने की आवश्यकता है कि जिस बौद्ध धर्म ने भारत के बाहर अनेक देशों में अपनी अमिट छाप छोड़ी है, वह अपने ही देश में उपेक्षित क्यों है। महावीर, कबीर, नानक के विचार यहीं अप्रासंगिक क्यों है।
मैं सर्वप्रथम शाकाहार पर बल देने हेतु इसके मानवीय पक्ष को आपके सामने प्रस्तुत करता हूं। दया, संयम, उचित-अनुचित का भेद ज्ञान यही सब गुण तो मनुष्य को मनुष्य बनाता है अन्यथा उसमें और पशु में क्या अंतर रह जाएगा। यही तो मानवता है। अब मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं। यदि आपके घर में कोई शुभ कार्य होता है अर्थात विवाह, जन्मोत्सव आदि। तो उन अवसरों पर भी मांस का सेवन किया जाता है। आप बताएं कि अपने पुत्र के जन्म की खुशी मनाने के लिए किसी और के पुत्र की बलि चढ़ाना उचित है? आप जिस जीव (बकरी, मुर्गी,मछली आदि) का मांस परोस रहे हैं वह भी तो किसी का पुत्र/पुत्री था। खुशी आपके घर आई इसमें उनका क्या दोष जिन्हें अपना संतान खोना पड़ा। तनिक विचार कर देखिए।
अब मैं शाकाहार के धार्मिक पक्ष से आपको अवगत कराना चाहूंगा। भगवान महावीर ने जीव-हत्या को अत्यंत निकृष्ट कार्य माना है एवम् शुद्ध-सात्विक आहार पर सर्वाधिक बल दिया है। उन्होंने तो शुद्ध आहार के साथ-साथ प्राणवायु की शुद्धता पर भी बल दिया है। आप जैन पंथ के मानने वालों को देखते होंगे कि वे मुंह पर कपड़ा बांधकर रखते हैं। वो इसलिए कि भूल से भी श्वास के माध्यम से कोई जीव, कीट-पतंग उनके मुंह में न चला जाए और वे उनकी हत्या के अपराधी न हो जाएं। परन्तु उनके विचार गृहस्थ एवम् सामाजिक व्यवस्था में प्रचलित नहीं हो पाये क्योंकि उनके बनाए नियम अधिकांशतः सन्यास व्यवस्था पर आधारित थे। वहीं गौतम बुद्ध ने इसे थोड़ा सरल बनाकर सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल बनाया। इस कारण वह उस समय बहुत प्रचलित हुआ। उन्होंने भी जीव-हत्या को सर्वथा निषेध बताया। दशावतार में गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का नौवां अवतार माना गया है।
वेदों में भी कहा गया है - ‘‘व्रीहिमत्तं यवमत्तमथोमाषम तिलम् एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दन्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च। ’’ अर्थात चावल खाओ ;व्रीहिम् अत्तं), जौ खाओ (यवम् अत्तं) और उड़द खाओ (अथो माषम्) और तिल खाओ (अथो तिलम्)। हे ऊपर नीचे के दांत (दन्तौ) तुम्हारे (वां) ये भाग (एष भागो) निहित है उत्तम फलादि के लिए (रत्नधेयाय)। किसी नर और मादा को (पितरं मातरं च) मत मारो (मा हिं सिष्टं)।
संत कबीर साहब ने कहा है-
जस मांसु पशु की तस मांसु नर की, रूधिर-रूधिर एक सारा जी।
पशु की मांस भखै सब कोई, नरहिं न भखै सियारा जी।।
ब्रह्म कुलाल मेदिनी भरिया, उपजि बिनसि कित गईया जी।
मांसु मछरिया तो पै खैये, जो खेतन मँह बोईया जी।।
माटी के करि देवी-देवा, काटि-काटि जीव देईया जी।
जो तोहरा है सांचा देवा, खेत चरत क्यों न लेईया जी।।
कहँहि कबीर सुनो हो संतो, राम-नाम नित लेईया जी।
जो किछु कियउ जिभ्या के स्वारथ, बदल पराया लेईया जी।। (शब्द-70)
शब्दार्थ :- जैसा पशु का मांस , वैसा ही मनुष्य का मांस है। दोनों में एक ही रक्त बहता है। मांसाहारी पशु मांस का भक्षण करते हैं और जो मनुष्य ऐसा करता है वो सियार के समान है। ईश्वर रूपी कुम्हार (ब्रह्म कुलाल) ने इतने बाग-बगीचे बनाये, फल-फूल बनाया वो सब उपज कर कहां जाते हैं। मांस-मछली खाना तो दोषपूर्ण (पै) है। उसे खाओ जो खेतों में बोआ जाता है। मिट्टी के देवी-देवता बनाकर उन्हें जीवित पशु की बलि चढ़ाते हो। यदि तुम्हारे देवता सचमुच बलि चाहते हैं तो वह खेतों में चरते हुए पशुओं को क्यों नहीं खा जाते। कबीर साहेब कहते हैं कि यह सब कर्म त्याग कर नित राम-नाम (भगवान नाम) का सुमिरन किया करो। अन्यथा तुम जो भी अपने जिह्वा के स्वाद के कारण यह कर रहे हो उसका बदला भी तुम्हें उसी तरह चुकाना पड़ेगा।
एक दूसरी जगह संत कबीर कहते हैं - ‘‘पंडित एक अचरज बड़ होई। एक मरि मुये अन्न नहिं खाई।। एक मरि सीझै रसोई।। ’’ अर्थात हे पंडितों, ज्ञानियों एक बहुत बड़े अचरज(आश्चर्य) की बात सुनाता हूं। एक जीव के मरने पर तो तुम शोक मनाते हो और अन्न नहिं खाते हो वहीं दूसरी ओर एक जीव को मारकर रसोई बनाते हो।
अब शाकाहार के सम्बंध में कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर भी प्रकाश डालते हैं। हमारे शरीर की रचना कुछ इस प्रकार की है जिससे वह शाकाहारी प्राणियों के समूह में आता है। मांसाहारी जंतुओं में मांस को चीरने-फाड़ने के लिए बेहद नुकीले व पैने दांत रदनक (ब्ंदपदम) पाया जाता है। परंतु मनुष्यों में इसका अभाव होता है। समस्त मांसाहारी जीव अपनी जिह्वा से पानी पीते हैं। परंतु शाकाहारी जंतु पानी घूंट-घूंट कर पीते हैं और गटकते हैं। मनुष्य भी ऐसा ही करता है। आप यदि कहीं विक्षिप्त शव या कोई मांस का टुकड़ा इत्यादि देखते हैं तो सर्वप्रथम घृणा का भाव पैदा होता है। क्योंकि हमारा शरीर की बनावट शाकाहारी जंतु की है, इसलिए मस्तिष्क सम्बंधित तंत्रिका को घृणा का भाव प्रेषित करता है, जिससे हम विक्षिप्त शव या कोई मांस का टुकड़ा इत्यादि देखते ही मुंह फेर लेते है। यदि हमारा शरीर मांसाहारी प्रकृति का होता तो उसके लिए यह लालसा की वस्तु होती। परंतु ऐसा नहीं होता।
छान्दोग्योपनिषद मे कहा गया है- ‘‘आहारशुद्ध होने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, अंतःकरण के शुद्ध हो जाने से भावना दृढ़ होती है और भावना की स्थिरता से ह्रद्य की समस्त गांठे खुल जाती है।’’
इस सम्पूर्ण आलेख का सार यह है कि अपनी आहार चेतना को जागृत कर हमें शाकाहार पर बल देना चाहिए। शाकाहार ही सर्वोत्तम आहार है।
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